खरगोश पालन पशुपालन

अंगोरा खरगोश पालन कर कृषि आय बढ़ाये

अंगोरा खरगोश पालन
Written by Bheru Lal Gaderi

पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े पशुओं की तुलना में छोटे पशु अधिक लाभकारी हो सकते हैं। अंगोरा खरगोश पालन इसी तरह का एक अत्यंत लाभकारी व्यवसाय है जिसे अपनाकर पर्वतीय क्षेत्रों के बेरोजगार युवा अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं। इन क्षेत्रों में स्वरोजगार की श्रेणी में भी यह लघु व्यवसाय के रूप में सफल सिद्ध हो सकता है।
पर्वतीय क्षेत्रों के आर्थिक निर्भरता मुख्य रूप से खेती एवं पशुपालन पर आधारित है। मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण खेती से प्राप्त कम उपज तथा पशुओं के लिए चारे दाने की कमी तथा पशुओं की उन्नत नस्लें ना होने के कारण इन से संतोषजनक आय प्राप्त नहीं हो पाती।

अंगोरा खरगोश पालन

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अंगोरा खरगोश पालन:-

अंगोरा खरगोश पालन को पर्वतीय क्षेत्रों में आसानी से किया जा सकता है। इसके लिए कम स्थान एवं कम चारे दाने की आवश्यकता होने के कारण चारागाह एवं वन संपदा पर निर्भर नहीं होना पड़ता है। अंगोरा खरगोश बहू प्रजनक होने से इसकी प्रतिवर्ष अनुमानत 10 से 12 गुनी उत्पादन क्षमता हो सकती हैं। उत्तरांचल के मध्य हिमालय क्षेत्रों की जलवायु अंगोरा खरगोश पालन के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं। पर्वतीय क्षेत्रों की महिलाएं इस दिशा में अहम भूमिका निभा सकती हैं।

यद्यपि अंगोरा खरगोश पालन 10 डिग्री सेल्सियस से 35 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान तक आसानी से किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए 15 डिग्री सेल्सियस से 22 डिग्री सेल्सियस तापमान अधिक उपयुक्त रहता है। अंगोरा खरगोश पालन सामान्यतः उनके लिए किया जाता है। अंगोरा ऊन पश्मीना जैसी ही मुलायम कोमल गर्म तथा अच्छी गुणवत्ता वाली होती है। उनके रेशे की लंबाई जर्मन नस्ल में 8.25 सेंटीमीटर तथा रेशे की बारीकी 11.50 माइक्रोन तथा गार्ड हेयर का प्रतिशत 1.2 पाया जाता है, जो पश्मीना से मिलता जुलता है।

पश्मीना ऊन को मैरिनो ऊन, सिल्क नाइलोन तथा कृत्रिम रेशों के साथ मिलाकर धागे बनाए जा सकते हैं। पश्मीना ऊन सिर्फ देश में अधिक ऊंचाई (10000 फिट से अधिक) वाले क्षेत्रों में ही पैदा की जा सकती हैं। वह भी कम मात्रा में उपलब्ध होती हैं। जब कि अंगोरा ऊन पश्मीना ऊन की तुलना में अधिक मात्रा में तथा 1500 से 2000 मीटर ऊंचाई वाले क्षेत्रों में अंगोरा खरगोश पालन कर पैदा की जा सकती हैं।

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पर्वतीय क्षेत्रों में अंगोरा खरगोश पालन के मुख्य कारण:-

  1. पर्वतीय क्षेत्रों की जलवायु(1500-2000 ऊंचाई वाले क्षेत्र) अंगोरा खरगोश पालन के लिए बहुत ही अनुकूल है।
  2. अंगोरा खरगोश के खाने पीने की आदते बहुत ही सामान्य होती हैं। इसको सभी प्रकार के चारों दानों पर पाला जा सकता है। रख रखाव इतना आसान है कि घर का कोई भी व्यक्ति आसानी से कर सकता है। घरेलू स्तर पर घर की जूठन शाक-सब्जी खरपतवार आदि पर पाला जा सकता है।
  3. अंगोरा खरगोश तीव्र गति से बढ़ने वाला पशु है अच्छे रख रखाव पर 16-18 सप्ताह में 2-2.5 किलोग्राम शरीर भार प्राप्त कर लेता है। स्थानांतरण क्षमता भी अच्छी होती है। खरगोश के शरीर में वासा की मात्रा कम होती है जो ह्रदय रोगियों के लिए अच्छा माना जाता है। खरगोश से प्राप्त होने वाली खाद उर्वरक तत्वों से भरपूर होती है। खरगोश की खाद में 31.4% पानी 1.4% नाइट्रोजन तथा 1.8% फॉस्फोरस होता है।
  4. पर्वतीय क्षेत्रों में अंगोरा खरगोश पालन भेड़ पालन का एक अच्छा विकल्प है। इन क्षेत्रों में इस व्यवसाय को व्यवसायिक स्तर पर करने से लगभग 17-18 सहायक व्यवसायों को बढ़ावा मिलता है। इन क्षेत्रों में प्रकृति द्वारा प्रदान की गई परिस्थितियां एक वरदान के रूप में है। अतः यह व्यवसाय पर्वतीय क्षेत्रों के विकास में अहम भूमिका अदा कर सकता है।

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पर्वतीय क्षेत्रों में अंगोरा खरगोश पालन को सफल बनाने एवं व्यवसाय में अधिक आय अर्जित करने के लिए खरगोश पालकों को व्यवसाय के मुख्य पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए जैसे-

उपयुक्त नस्ल:-

ऊन उत्पादन हेतु अनेक नस्ले जैसे रशियन अंगोरा, इंग्लिश अंगोरा एवं जर्मन अंगोरा आदि पाली जाती है। उत्पादन एवं ऊन की गुणवत्ता के आधार पर उपरोक्त नस्लों में सर्वाधिक उपयुक्त है जर्मन में अंगोरा नस्ल से औसत उत्पादन 1000 से 1200 ग्राम ऊन प्रतिवर्ष मिल जाता है। अतः उक्त नस्ल ऊन की मात्रा एवं गुणवत्ता के आधार पर व्यवसायिक अंगोरा पालन के लिए सर्वथा उपयुक्त है।

आवास प्रबंधन:-

प्रबंधन संबंधित समस्याओं में खरगोश की आवास व्यवस्था का सबसे अधिक महत्व है। सुनियोजित एवं पर्याप्त आवास व्यवस्था के बिना खरगोश का कुशल प्रबंधन अधूरा ही रह जाता है। एक कुशल प्रबंधन को यह चाहिए कि कम से कम जगह में अधिक से अधिक खरगोश रखे जा सके। सामान्यतः खरगोशों को पिंजरों में पाला जाता है। पिंजरों का आकार खरगोश की उम्र अवस्था एवं आकार पर निर्भर करता है।

सामान्यतः एक व्यस्क खरगोश को 60x45x45 सेंटीमीटर आकार का पिंजरा चाहिए। ब्याने वाली मादाओं के लिए 90x45x45 सेंटीमीटर के पिंजरे रखे जाते है। ताकि उन में नेस्टबॉक्स रखे जा सके। सामान्यतः खरगोश के पिंजरे एक दर्जा, दो दर्जा, तीन दर्जा आदि प्रकार के बनाए जाते हैं। स्वस्थ्य संबंधी बिंदुओं की दृष्टि से आवास एवं सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जीवाणु एवं विषाणु जनित रोगों की रोकथाम हेतु 10 दिन के अंतराल पर पिंजरों की वर्नीस करते रहना चाहिए।

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आहार प्रबंधन:-

खरगोश पालन में आहार प्रबंधन अत्यधिक महत्वपूर्ण पहलू है। अपने खानपान के मामले में खरगोश एक अद्भुत प्राणी है। पाचन तंत्र की विशेष रचना के कारण यह घास तथा अन्य हरे चारों को आसानी से पचा लेता है। यहां तक कि यह अपने मल में त्यागे गए पौष्टिक तत्वों को पुनः उपयोग कर लेता है।

एक वयस्क खरगोश को कम पोषक माने जाने वाले हरे चारे जिनमें मात्र 10% प्रोटीन को खाया जा सकता है। परंतु सफल खरगोश पालन के लिए 18-20% प्रोटीन 22000 किलोग्राम कैलोरी ऊर्जा तथा 15-20% रेशे वाला आहार देना चाहिए। व्यवसायिक स्तर पर गोलियों के रूप में तैयार संतुलित आहार देना चाहिए।

एक वयस्क खरगोश की 100-120 ग्राम प्रतिदिन आहार की आवश्यकता होती है। अगर इसके साथ दिन में कोई एक हरा चारा दे तो आहार की मात्रा 25% तक कम की जा सकती हैं।
चारे दानों में कभी भी अचानक है बदलाव नहीं करना चाहिए साथ ही दाने का भंडार नमी से बचाकर सुखी जगह पर करना चाहिए। जिससे दाने को फफूंदी एवं अफ्लाटॉक्सिन जैसे विषैले पदार्थों के संक्रमण से बचाया जा सके।

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प्रमुख रोग एवं उनकी रोकथाम:-

खरगोश बहुत ही सीधा डरपोक एवं निरीह प्राणी है। वह रोगों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। यदि इसकी प्रबंधन भरण-पोषण पानी आदि पर सावधानी ना बरती जाए तो शीघ्र ही अनेक रोगों का घर कर लेता है। खरगोश में अनेक जीवाणु विषाणु एवं परजीवी जनित रोग होते हैं।

जिनसे पाश्चुरीलोसिस जीवाणु जनित, मिक्सोमेटिक्स एवं आंत्रशोध विषाणु जनित, काक्सीडियोसिस प्रोटोजोमा जनित एवं कुछ अन्य रोग जैसे- कैंकर, सोरहाक थनैला अफरा रोग खरगोश को अधिक प्रभावित करते हैं। इन सभी रोगों की रोकथाम के हेतु आवास, सफाई, पिंजरों की वर्नीस, संतुलित आहार एवं स्वच्छ पानी पर अधिक ध्यान देना चाहिए।

त्वचा संबंधी रोगों के होने पर एंटीसेप्टिक क्रीम का प्रयोग करें। खाज-खुजली, कैंकर आदि की रोकथाम हेतु बेजोइल बेंजोइट, एस्केवियाल में से कोई भी दवा उपलब्ध्ता अनुसार उपयोग करें। कैंकर के उचित उपचार हेतु आइवरमेक्टिन/हाईटेक इंजेक्शन 0.1-0.2 मिलीलीटर प्रति खरगोश प्रयोग करना चाहिए। सरहक की रोकथाम हेतु पिंजरों की वर्निक्स नियमित अंतराल पर करें।

किसी भी जीवाणु एवं विषाणु जनित रोग पर उचित उपचार पशु चिकित्सक के परामर्श के अनुसार करना चाहिए। खरगोशों में कोक्सीडीपोसिस रोग नवजात बच्चों एवं खरगोशों में अधिक हानि पहुंचाता है। इसके उपचार हेतु इम्प्रोलियम, सुपरकॉक्स, कार्डीनल, काक्सीमार आदि दवा में से कोई एक दवा 5-7 दिन पीने वाले पानी में(2.5-3.0 ग्रा.म.) देनी चाहिए।

पाचन संबंधी रोगों की रोकथाम हेतु संतुलित आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए साथ ही समय समय पर पानी में बी कॉन्प्लेक्स एवं अन्य पाचन संबंधी दवाएं देते रहना चाहिए। उपरोक्त सभी रोगों के बचाव हेतु खरगोश पालन आवास की सफाई, संतुलित आहार एवं केजों कि वर्नीस पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

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उपरोक्त सभी पहलुओं के अलावा इस व्यवसाय को सफल बनाने एवं व्यवसाय से अच्छी आय अर्जित करने हेतु निम्न बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए जैसे:-

  • ऊन वाले खरगोशों को हमेशा 1500 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ही पालना चाहिए।
  • खरगोशों के चारे दाने में अचानक फेरबदल नहीं करना चाहिए।
  • नर एवं मादा खरगोशों को अलग-अलग पिंजरों में रखना चाहिए।
  • मादा खरगोशों को 4 -5 माह की उम्र पर ही प्रजनन हेतु उपयोग करना चाहिए।
  • मादा खरगोशों के ब्याने के बाद 45 दिन पर बच्चों को माता से अलग (विनिंग) कर देना चाहिए।
  • अन्य पशु फार्म से खरगोश पालन दूर करना चाहिए एवं जहां तक हो सके खरगोशों को संतुलित आहार पर पालना चाहिए।
  • आहार दाने को नमी एवं चूहों से बचा कर रखना चाहिए।
  • रोगी खरगोशों का पता चलते ही उनको अन्य खरगोश से अलग कर तुरंत उपचार करना चाहिए। खरगोश के जनन, प्रजनन एवं उत्पादन सम्बन्धी अभिलेख रखना चाहिए।
  • प्रारंभ में एक छोटी इकाई (2नर एवं 8 मादा) खरगोश पालन शुरू करना चाहिए। 10 शावकों की छोटी इकाई से व्यवसाय प्रारंभ कर ऊन एवं संतति बेचकर खरगोश पालन अनुमानित 3000-4000 प्रतिमाह अतिरिक्त आय अर्जित की जा सकती है।
  • खरगोश पालन में सफाई का विशेष महत्व है। अतः खरगोशों के आवास, पिंजरे, दाना पानी के बर्तनों की सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

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उपरोक्त को ध्यान में रखकर अगर खरगोश पालन किया जाए तो निश्चित ही खरगोश को काफी हद तक स्वस्थ रखकर उनसे अच्छा उत्पादन लेकर अतिरिक्त आय अर्जित की जा सकती है।

साभार:-
किसान भारती

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