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अफीम की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

अफीम
Written by Bheru Lal Gaderi

विश्व में औषधीय प्रयोग के लिये इसकी खेती भारत, पूर्व सोवियत संघ, मिश्र, यूगोस्लाविया, चेकास्लोवाकिया, पोलेण्ड, जर्मनी, नीदरलैण्ड, चीन, जापान, अर्जेन्टीना, स्पेन, बुल्गारिया, हंगरी एवं पुर्तगाल में होती है। अफीम की खेती भारत में राजस्थान के झालावाड़, बारां, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, मध्यप्रदेश के नीमच, मन्दसौर, रतलाम क्षेत्र तथा उत्तरप्रदेश के फैजाबाद, बाराबंकी, बरेली, शाहजहाँपुर क्षेत्र में दाने तथा अफीम दूध के उत्पादन के लिये भारत सरकार के अधीन केन्द्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो द्वारा जारी पट्टे के आधार पर की जाती है।

अफीम

अफीम की उन्नत किस्में:-

चेतक : 80-90 सेन्टीमीटर ऊँची इस संकुल किस्म के फूलों का रंग सफेद होता है। इसकी पंखुड़ियां बिना छितरी हुई तथा फूल के डंठल बाल रहित होते हैं। चीरा लगाते समय इसके डोडों, पत्तियों और तने पर सफेद रंग की मोम की पतली परत होती हैं। चीरा लगाने लायक होने पर इसके डोडे बड़े व कुछ गोल आकार लिए हुए चपटी गेंदनुमा लगते हैं। सामान्य उर्वरा भूमि में इस किस्म के पौधों पर एक डोडा लेकिन अधिक उर्वरा शक्ति वाली जमीन में इसमें अधिक डोडे लगते हैं। इस किस्म की अफीम व बीज की उत्पादन क्षमता देशी किस्म की तुलना में क्रमश: 24 कि.ग्रा. व 130 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर अधिक है तथा इसमें करीब 12.5 प्रतिशत मार्फिन होता है, जिससे करीब 5 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर मार्फिन प्राप्त किया जा सकता है। इस किस्म पर काली मस्सी रोग का प्रकोप भी कम होता है।

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खेत का चुनाव व तैयारी:-

अफीम के लिये चिकनी या चिकनी-दोमट भूमि उपयुक्त रहती हैं। खेत तैयार करके समतल करें। ध्यान रखें कि खेत में ढेले न रहें। जैविक खाद एवं उर्वरक खेत में जुताई से पहले 10 टन प्रति हैक्टर देशी खाद डालें। अफीम के लिये 90 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 10 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर देना लाभदायक रहता है। फॉस्फोरस तथा पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के समय देवें। शेष आधी नत्रजन को दो बराबर भागों में बांट कर आधी 40-50 दिन पर एवं बची हुई आधी फूल आने से पहले देवें ।

बीज, बीजोपचार एवं बुवाई:-

एक हैक्टर के लिये 5 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त होता है। अफीम की बुवाई सप्ताह तक करें। अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के पहले मृदुरोमिल आसिता रोग की रोकथाम हेतु प्रति किलो बीज में 8-10 ग्राम मेटालेक्सिल 35 एस. डी. मिलाकर बीज को उपचारित करने के बाद ही बोयें।
बीज छोटे होते हैं इसलिये बुवाई से पहले बीजों में दुगने अनुपात में सूखी मिट्टी मिलायें। बीज को बोने से पहले खेत में 3 X 5 मीटर आकार की छोटी-छोटी क्यारियां बना लेवें। क्यारियों में 30-30 सेन्टीमीटर की दूरी पर कतारें बनाते हुए बीज कतारों में डालें। पहली व दूसरी सिंचाई के समय ध्यान रहे कि क्यारियों में अधिक पानी नहीं जाये अन्यथा बीज किनारों पर आ जायेंगे।

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सिंचाई:-

फसल में कुल 8-10 बार सिंचाई करनी पड़ती है। पहली सिंचाई बुवाई के तुरन्त बाद हल्की करें। शुरू की सिंचाई लगभग 6-7 दिन के अन्तर से और बाद में 10-12 दिन के अन्तर से सिंचाई करें। अफीम निकालने के समय सिंचाई बन्द कर देवें तथा अफीम के डोडों पर चीरा लगाना शुरू करने के बाद सिंचाई बिल्कुल नहीं करें।

निराई-गुडाई:-

फसल को तीन बार निराई गुड़ाई की जरूरत होती है। बुवाई के तीन सप्ताह बाद अनावश्यक पौधों को निकाल कर पौधे से पौधे की दूरी 10 सेन्टीमीटर कर देवें। एक हैक्टर में लगभग 3 लाख पौधे होने चाहिये।

अफीम की बुवाई के चौथे या पांचवें दिन बीज उगने से पहले खरपतवार नाशी आइसोप्रोट्यूरॉन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर की दर से 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर खेत में छिड़के तथा बुवाई के तीस दिन बाद एक निराई गुड़ाई करने से खरपतवार पर नियन्त्रण हो जाता है तथा लागत कम आती है।

फसल सरक्षण:-

भूमिगत कीड़ों की रोकथाम हेतु क्यूनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से भूमि तैयार करते समय खेत में मिलायें। डोडा लट: फूल आने से पूर्व व डोडा लगने के बाद कार्बेरिल 5 प्रतिशत या क्यूनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण का 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से भुरकाव करें।

दवा भुरकने में कठिनाई हो तो 1 लीटर क्यूनॉलफॉस 25 ई.सी. अथवा 1.25 लीटर मैलाथियान 50 ई.सी. या 1 लीटर मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. का प्रति हैक्टर की दर से पानी में घोल बनाकर 45 दिन की फसल पर छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार प्रथम छिड़काव के 15 दिन बाद उपचार दोहरावें तथा दवा छिड़कने के 15 दिन बाद तक फसल खाने के काम न लेवें।

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मृदुरोमिल फफूद:-

जिस खेत में एक बार रोग हो जाये वहां अगले तीन साल तक अफीम नहीं बोनी चाहिये। रोग की रोकथाम हेतु मेटालेक्सिल के 0.2 प्रतिशत घोल के तीन छिड़काव बुवाई के 30.50 एवं 70 दिन के बाद करें। यदि यह रसायन उपलब्ध न हो तो लक्षण दिखाई देते ही 2 किलो मैन्कोजेब का प्रति हैक्टर की दर से 15 दिन के अन्तर पर छिड़काव करें।

चूर्णी फफूंद:-

फरवरी में 2.5 किलो गन्धक का घुलनशील चूर्ण अथवा 250 ग्राम कार्बेण्डेजिम के घोल का प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें।

छाछया रोग:-

प्रबंधन हेतु फसल बुवाई के 70, 85 एवं 105 दिनों के उपरांत ट्राइप्लोक्सीस्ट्रोबीन 50 घुलनशील दानों की (0.1 प्रतिशत) यानि 2 ग्राम अथवा डाइनोकेप (0.1 प्रतिशत) यानि 2 मिली. प्रति लीटर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करे।

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अफीम फसल के जड़ गलन रोग का समन्वित रोग प्रबंधन

  • फसल बुवाई से पहले नीम खली की खाद 5 टन प्रति हैक्टर की दर से मिट्टी में मिलावें ।
  • जैव फफूंदनाशी ट्राईकोडर्मा चूर्ण (सी.एफ.यू. 10 / ग्राम) द्वारा 10 ग्राम प्रति किलो बीज दर से उपचारित करें।
  • फसल बुवाई के 35 एवं 60 दिनों के उपरांत फफूंदनाशी दवाओं जैसे हेक्जाकॉनालोज 5 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत (1 मि.ली. प्रति लीटर) या मैन्कोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 0.3 प्रतिशत (4 ग्राम प्रति लीटर) की दर से पानी में घोल बनाकर फसल की जड़ों को गीला करें। या फसल बुवाई से पहले नीम खली 5 टन प्रति हैक्टर की दर से मिट्टी में मिलावें तथा फसल बुवाई के 35 एवं 60 दिनों के उपरांत फफूदनाशी दवा हेक्जाकोनाजोल 5 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत (1 मि.ली. प्रति लीटर) की दर से पानी में घोल बनाकर फसल की जड़ों को गीला करें। इससे पौधों की मृत्युदर व रोगों में कमी आती है।
  • अनुसंशोधित उर्वरकों की मात्रा व अच्छी सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करें।
  • खड़ी फसल में अत्यधिक सिंचाई एवं दवाओं व नकली रसायनों का प्रयोग नहीं करें।
  • फसल की बुवाई जल निकास युक्त उपजाऊ दोमट मृदा में 25 से 31 अक्टूबर के मध्य करें।

अफीम के जीवाणु झुलसा रोग का समन्वित रोग प्रबंधन:-

अफीम फसल में रोग प्रकट होने पर जीवाणुनाशी दवा स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 0.03 प्रतिशत (1 ग्राम प्रति तीन लीटर) और इसके साथ कॉपर आक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण की 0.2 प्रतिशत (4 ग्राम प्रति लीटर) की दर से पानी में घोल बनाकर पहला छिड़काव लक्षण प्रकट होने पर एवं दूसरा व तीसरा छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर पुनः दोहरावें (उपरोक्त सुझाए उपाय समय पर करने से फसल में रोग नियंत्रण के साथ बीज, चुरा डोडा उत्पादन में बढ़ोतरी एवं गुणवत्ता युक्त अफीम दूध की प्राप्ति होती है।)

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पत्ती धब्बा रोग का समन्वित रोग प्रबंधन:-

अफीम फसल में रोग प्रकट होने पर फफूंदनाशी दवाओं का मिश्रण जिसमें मेन्कोजेब 63 प्रतिशत व कार्बेन्डाजिम 12 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण की 0.2 प्रतिशत अथवा 3 ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर पहला छिड़काव लक्षण प्रकट होने पर एवं दूसरा व तीसरा छिड़काव 15 दिन के अन्तराल से पुनः दोहरावें । पाला : पाले से बचाने हेतु 50 प्रतिशत फूल आ जाने पर गन्धक के तेजाब का 0.1 प्रतिशत घोल का दो बार छिड़काव भी किया जा सकता है।

अफीम निकालना:-

फूलों की पंखुड़ियाँ गिरने के लगभग 15 दिन बाद अफीम निकालने का काम शुरू करें। डोडों पर चीरा लगाने के लिये तीन नोक वाला नश्तर काम में लिया जा सकता है। चीरा हमेशा दोपहर बाद लगाना चाहिये और दूसरे दिन सुबह डोडों पर जमी अफीम को खुरचकर इकट्ठी कर लेवें। दोपहर बाद जिन पौधों पर चीरा नहीं लगा हो उन पर चीरा लगायें तथा सुबह अफीम इकट्ठी कर लेवें। इस तरह तीन दिन बाद प्रत्येक डोडे पर दूसरी बार चीरा लगायें। कुल मिलाकर 3 से 5 बार चीरा लगायें।

उपज:-

अफीम की लगभग 35-50 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर उपज होती है। इसके अलावा 5-10 क्विंटल बीज एवं 5-10 क्विंटल डोडे भी प्राप्त हो जाते है।

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