उन्नत किस्में:-
आर एल 102-71 (त्रिवेणी) (1994):-
दाना व रेशा दोनों की दृष्टि से उपयुक्त 120 दिन में पकने वाली इस किस्म के पौधों की ऊँचाई 70 सेन्टीमीटर होती है। इसमें तेल की मात्रा 41 प्रतिशत तक एवं उपज 13-15 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। अलसी (Linseed Cultivation) की यह किस्म लवण सहनशील, उखटा व छाछया रोग के प्रति सामान्य रोग रोधी है।
चम्बल (1976):-
120-125 दिन में पकने वाली, मोटे दाने की इस किस्म में तेल की मात्रा 45 प्रतिशत तक होती है। इसके 1000 दानों का वजन 9-10 ग्राम एवं उपज 10-12 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है।
प्रताप अलसी 1 (2004):-
दाना व रेशा दोनों की दृष्टि से उपयुका 129-135 दिन में पक कर तैयार होने वाली इस किस्म की ऊँचाई 80-85 से.मी. होती है। इसमें तेल की मात्रा 40-42 प्रतिशत तथा उपज 19-20 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। यह किस्म उखटा छाछ्या एवं पत्ती धब्बा (झुलसा) के प्रति सामान्य रोग रोधी है।
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खेत की तैयारी एवं भूमि उपचार:-
अलसी के लिये काली चिकनी मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती है, लेकिन भूमि क्षारीय या अम्लीय नहीं होनी चाहिये। अलसी की खेती सामान्यतः बारानी ही होती है। कुछ क्षेत्रों में सिंचित फसल भी ली जाती है। वर्षा ऋतु में चारे के लिये ज्वार, चंवला की फसल 60 दिन में ली जा सकती है। चारा काटते ही पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद देशी हल या बक्र से खेत तैयार करें।
दीमक तथा जमीन के अन्य कीड़ों की रोकथाम हेतु बुवाई से पूर्व अन्तिम जुताई के समय क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से खेत में बिखेर कर जुताई करें।
बुवाई समय एवं बीज की मात्रा:-
बारानी क्षेत्रों में अलसी की बुवाई 10 अक्टूबर से पूर्व ही करें। विलम्ब से बुवाई करने पर पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। एक हैक्टर के लिये 15-18 किलो बीज पर्याप्त होता है। बीज 30 30 सेन्टीमीटर के अन्तर पर कतारों में 5-6 सेन्टीमीटर गहरा बोयें बीज की गहराई भूमि में उपलब्ध नमी के अनुसार रखें।
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उर्वरक प्रयोग:-
अलसी के लिये 30 कि.ग्रा. नत्रजन एवं 15 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टर बुवाई के समय ऊर कर देवें ।
सिंचाई एवं निराई गुड़ाई:-
दो सिंचाईयाँ उपलब्ध हो तो पहली सिंचाई 40-45 दिन में व दूसरी 60 75 दिन में करें। एक ही सिंचाई देनी हो तो 60 दिन में करें। खेत में खरपतवार अधिक दिखाई दें तो एक निराई गुड़ाई बुनाई के 20-25 दिन बाद कर देनी चाहिये।
पौध संरक्षण:-
उखटा:-
यह बीमारी पौधों की बढ़वार की सभी अवस्थाओं में होती है। पौध संक्रामी, बीज पत्र भीतर की ओर लपेट लेते है और पौधा मरने लगता है। तरूण पौधों में नीचे की पत्तियाँ सिकुड़कर मुरझा जाती है और प्रौढ़ पौधों की लटकी, सिकुड़ी हुई पत्तियों के गिरने पर खेत में तने ही खड़े हुए रह जाते है। रेतीली भूमि में रोग की व्यापकता अधिक होती है 3 ग्राम थाइरम से प्रति किलो बीज को उपचारित कर बोने से इसका आंशिक संक्रमण रोका जा सकता है। रोगरोधी किस्में बोयें।
छाछया:-
इस रोग की रोकथाम के लिये घुलनशील गंधक के 0.3 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। रोग रोधी किस्में बोये ।
रोली (रतुआ):-
चमकते नारंगी रंग के छाले जैसे पश्चूल्स, पत्तियों और तने पर बन जाते है। इनमें नारंगी रंग के चूर्ण जैसे बीजाणु भरे रहते है, जो आसानी से नये संक्रमण स्थापित करते है रोगरोधी किरण किस्म बोयें इसकी रोकथाम हेतु 1.5 प्रतिशत ट्राइडीमोर्फ का छिड़काव करें।
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