आंवला के फलों का स्वाद अम्लीय तथा कसेलापन लिये हुए होता है जिसमें विटामिन सी प्रचूर मात्रा में उपलब्ध होता है। इसका उपयोग अधिकतर मुरब्बा एवं चटनी के रूप में किया जाता है।
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जलवायु एवं भूमि:-
यह उष्ण से उपोष्ण जलवायु में बहुत अच्छी तरह पनपता है, प्रारम्भिक अवस्था के दो तीन वर्षों तक पौधे को लू तथा पाले से बचाना आवश्यक है बाद में विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके पौधे अधिक सहिष्णु होने के कारण विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाये जा सकते है।
इसके लिये करीब 2 मीटर गहरी भूमि की आवश्यकता होती है। इसके लिये गहरी दोमट भूमि सर्वोत्तम है। क्षारीय भूमियों में (7.0 से 9.0 पी.एच. में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
आंवला की उन्नत किस्में:-
बनारसी:-
इसके फल बड़े आकार के (औसत 5 सेमी) होते हैं तथा मुरब्बा बनाने हेतु उपयुक्त है।
चकैया:-
फल मध्यम आकार के 3 से 4 सेमी.) एवं फलों का रंग पकने पर हरा होता है। अचार बनाने के लिये उपयुक्त है।
कृष्णा (एन.ए. -5):-
फल बड़े आकार (6 से 8 सेमी) धारियों वाले हरापन लिए होते है जिन पर लाल रंग के छोटे-छोटे धब्बे होते हैं। फलों में रेशे कम होते है तथा मुरब्बा केण्डी व रस हेतु उपयुक्त हैं।
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नीलम (एन.ए.- 7 ):-
यह किस्म सबसे जल्दी फल देना शुरू करती है। इसके फल मध्यम आकार के एवं औसत वजन प्रति फल लगभग 44 ग्राम होता है। फलों में रेशे का प्रतिशत कम (1.5 प्रतिशत) होता है व फल हरापन लिये हुये सफेद होते हैं।
अधिक फलत के कारण इसकी शाखाओं को सहारे की आवश्यकता होती है। गोमा ऐश्वर्या किस्म केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर से विकसित की गई है जो सूखे के प्रति सहनशील है।
प्रवर्धन:-
इसका प्रवर्धन कलिकायन विधि द्वारा किया जाता है। कलिकायन विधि सस्ती, अच्छी एवं सरल है। जून माह में चश्मा चढ़ाने में काफी सफलता मिलती है। पेच कलिकायन सबसे अच्छी विधि है। मूल वृन्त के लिये के बीजू पौधा लगभग छः माह से एक वर्ष पुराना होना चाहिये।
पौधे लगाने की विधि:-
इसके पौधों को 8×8 मीटर की दूरी पर जुलाई के महिने में पहले से तैयार किये गये गड्डों में लगाया जाता है। सिंचाई के लिए पानी की सुविधा होने पर पौधे फरवरी-मार्च में भी लगाये जा सकते है।
पेड़ लगाने के लिए 1x1x1 मीटर आकार का गड्डा निश्चित दूरी पर खोदा जाता है। इन गड्डों में 20 से 25 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद तथा 1 किलो सुपर फॉस्फेट, 50 से 100 ग्राम क्यूनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण प्रति गड्डे के हिसाब से मिलाकर गड्डों को भरकर पौधा लगाया जाता है।
खाद एवं उर्वरक
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आंवले के पौधे को निम्न तालिका के अनुसार खाद एवं उर्वरक देना चाहिये
जनवरी-फरवरी के महिने में पेड़ के चारों तरफ फैलाव में नाली बनाकर खाद एवं उर्वरक देना चाहिये। गोबर की खाद, सुपर फॉस्फेट, म्यूरेट ऑफ पोटाश की मात्रा तथा यूरिया की आधी मात्रा जनवरी फरवरी में दें तथा यूरिया की शेष मात्रा अगस्त में देना लाभदायक है।
इसके अतिरिक्त बोरेक्स 0.5 प्रतिशत घोल का छिड़काव फूल लगने की क्रिया को तेज करता है तथा फलों को झड़ने से बचाता है।
सिचाई एवं अन्तराशस्य:-
प्रारम्भ के तीन वर्षों में सब्जियां ग्वार, मटर, चौला, मिर्च, बैंगन, प्याज आदि ली जा सकती है। आंवला के पौधे को वर्षा एवं सर्द ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
मार्च के महिने में जब नई कोपलें निकलने लगे तो सिंचाई करना प्रारम्भ कर देना चाहिये। जून माह तक कुल पन्द्रह दिन के अन्तराल से चार-पांच सिंचाईयों की आवश्यकता होती है।
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फलन:-
आंवला में बसंत ऋतु में फूल आते हैं। फूल तीन सप्ताह तक खिलते है। फूल निश्चित बढ़वार वाली शाखाओं पर आते हैं। मादा फूल शाखा के ऊपरी सतह पर तथा नर फूल शाखा के निचली सतह पर आते है।
फूलों में पर-परागण की क्रिया से सेचन होता है। निषेचन के बाद युग्मक सुषुप्तावस्था में चले जाते है जिसे युग्मक सुषुप्त भी कहते है गर्मी में फलों में किसी भी प्रकार की वृद्धि का आभास नहीं होता है। युग्मक की सुषुप्तावस्था जुलाई-अगस्त में समाप्त हो जाती है तथा उसके बाद फलों का विकास शुरू हो जाता है।
फल नवम्बर-दिसम्बर में परिपक्व हो जाते है। आंवलों में स्वयं असंगतता भी देखी गई है। अतः अच्छे फल के लिय परागक किस्म लगाना आवश्यक होता है। चकैया, एन. ए. 6 और कृष्णा किस्म एन.ए.7 के लिये परागक का कार्य करती है। अच्छे फलन के लिये आंवला के बाग में 5 प्रतिशत परागक किस्म को लगाना चाहिए।
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पौध संरक्षण:-
कीट प्रबंध:-
छाल मक्षक कीट :-
यह एक हानिकारक कीट है। कीट वृक्ष की छाल को खाता है तथा छिपने के लिये डाली में गहराई तक सुरंग बना डालता है जिसके फलस्वरूप डाल / शाखा कमजोर पड़ जाती है। नियंत्रण हेतु सूखी शाखाओं को काट कर जला देवें।
क्यूनालफॉस (25 ई.सी.) या डाइक्लोरोवॉस (76 ई.सी.) 2 मिलीलीटर का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर शाखाओं तथा डालियों पर छिड़काव करें तथा साथ ही सुरंग को साफ करके किसी पिचकारी की सहायता से 3 से 5 मिलीलीटर मिट्टी का तेल प्रति सुरंग डाले या रूई का फाहा बनाकर सुरंग के अन्दर रख दें एवं बाद में ऊपर से सुरंग को गीली मिट्टी से बन्द कर देंवे ।
व्याधि प्रबंध:-
आंवले का रोली रोग (रस्ट):-
इसके प्रकोप से अगस्त माह में पत्तियों पर रोली के धब्बे बन जाते हैं। पत्तों पर काले धब्बे बनते है जो कभी-कभी पूरे फल पर फैल जाते है। रोगी फल पकने से पहले ही झड़ जाते है जिससे बहुत हानि होती है।
नियंत्रण हेतु 1 ग्राम घुलनशीन गंधक अथवा क्लोरोथीलेनिल 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से तीन छिड़काव जुलाई माह से 15 से 30 दिन के अन्तराल से करने पर फलों के रोग का लगभग पूर्ण नियंत्रण हो जाता है।
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आन्तरिक काला धब्बा:-
यह बोरोन की कमी से होता है।
व फल अन्दर से कालापन लिये हुए होता है। इसके नियंत्रण हेतु 6 ग्राम बोरेक्स प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव प्रथम अप्रैल, द्वितीय जुलाई में तृतीय सितम्बर माह में करें।
फलों की तुड़ाई एवं उपज:-
कलमी आंवले का पेड़ 4 से 5 वर्ष की आयु में फल देने लगता है। फूल मार्च-अप्रैल में आते है तथा फल नवम्बर-दिसम्बर में तोड़ने के लायक हो जाते है। एक पूर्ण विकसित कलमी आंवले का पेड़ 50-100 किलो फल देता है।
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