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करंज महत्व एवं उन्नत शस्य क्रियाएं

करंज
Written by Vijay Gaderi

करंज (पोंगामिया पिन्नाटा) लेग्यूमिनोसी परिवार एवं पैपिलियोनेसी उप-परिवार का पेड़ है जिसे अलग-अलग राज्यों  में विभिन्न नाम से जाना जाता है। जैसे:- आंध्रप्रदेश में गागुन, पुंग, कर्नाटक में होंगे, हुलिगिली, बट्टी, उगमरा, केरल में मिन्नारी, पुन्नू, तमिलनाडु में पोंगम, पोंगा, कंगा, उड़ीसा में कोरोंजो, कोंगा, पश्चिमी बंगाल में दलकरमाचा, मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश में करंजा, करंज, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान एवं पंजाब में सुखचैन, करंज, पापड़ी, असम में करछो, ट्रेड, पुंगा आदि।

करंज

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राजस्थान में यह वृक्ष अधिकतर नदी, नालों के किनारे, अरावली पहाड़ी की वादियों, पड़त, बंजर भूमियों में उगता है।

यह नाइट्रोजन जमा करने वाला पेड़ है इसलिए इससे जमीं की उर्वरता शक्ति बढाती है। जानवर इसे नहीं चरते है। जल जमाव, अम्लीय, क्षारीय परिस्थितियों में भी यह आसानी से उगता है।

जलवायु:-

5 डिग्री से 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में तथा 500-2500 मिमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र इसकी वर्दी के लिए उपयुक्त होते है। अधिक बढ़वार व उत्पादन हेतु उपयुक्त तापक्रम 27 से 38डिग्री सेल्सियस है यह आद्र एवं उपोषण कटिबंधीय जलवायु क्षेत्र में अधिक पनपता है।

भूमि:-

यह पेड़ निम्नकोटि के सीमांत, बलुई एवं पथरीली भूमि वाले सूखे क्षेत्र में उग सकता है। हालांकि प्रचुर नमी वाली गहरी बलुई दोमट मट्ठी इसके पौध रोपण के लिए सबसे अधिक उपयुक्त होती है। पी. एच. मान  6.5-8.5 वाली भूमियाँ अधिक उपयुक्त है।

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प्रवर्धन:-

  1. पौध नर्सरी विधि
  2. वानस्पतिक विधि
  3. लेयरिंग तथा ग्राफ्टिंग विधि
पौध नर्सरी विधि:-

पौधशाला में रोपण योग्य पौधे दो तरीके से तैयार किये जाते है।

क्यारियों में:-

एक हेक्टेयर बुवाई के लिए 1-12  किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। पौध नर्सरी मार्च-अप्रेल या बरसात के दिनों में तैयार की जाती है। जब क्यांरियों में एक माह या ऊंचाई लगभग 2.5 सेमी. या 2 पत्ती की हो जाय तब उपयुक्त मिट्ठी व खाद के मिश्रण से भरी थैलियों में इनका प्रति रोपण कर लिया जाता है।

पॉलिथीन की थैलियों में:-

सामन्यतया पॉलिथीन थैलियां 15 सेमी. 25 सेमी. आकार की  काम में लेते है। इन थैलियों में मिटटी, खाद तथा बालू की मात्रा उपयुक्त अनुपात 3:1:1 के मिश्रण से भरकर नर्सरी बेड में जमा लेते है। उपचारित बीजों को माह में इन थैलियों में 1.5-2 सेमी. गहराई पर बुवाई कर देते है। अंकुरण हो जाने के बाद 2-3 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिए।

वानस्पतिक विधि:-

इस हेतु दो वर्ष पुरानी शाखा या 3-5 वर्ष आयु वाले पेड़ की शाखा का चयन करते है। इसमें टहनी के अग्रिम शाकीय भाग से 15-25 सेमी. लम्बी, 1-2 सेमी. मोटी तथा अर्ध-कठोर डालियों से कलमे तैयार कर लाया जाता है।

लेयरिंग तथा ग्राफ्टिंग विधि:-

एयर लेयरिंग तथा क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग के माध्यम से भी करंज का प्रवर्धन किया जा सकता है। क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग के लिए करंज के एक वर्ष की आयु वाले पौधों को रूट स्टॉक (प्रकंद) के तोर पर उपयोग में लाया जाता है।

रोपण विधि:-

पौध रोपण का उचित समय जुलाई-अगस्त माह अथवा मानसून के अच्छी तरह बरसने के बाद का है। इसके लिए मई-जून में ही खेत में 45x45x45 सेंटीमीटर के गढ्ढे कतार से कतार एवं पौधे से पौधे की दुरी 5×4मी. पर खोद लेना चाहिए व इन गढ्ढों को धुप में खुला छोड़ देना चाहिए।

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खाद एवं उर्वरक:-

प्रति गड्ढा 5 किग्रा. गोबर की सड़ी हुई खाद 300 ग्राम यूरिया, 700 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट व 100 म्यूरेट ऑफ़ पोटाश की आवश्यकता होती है। रोपण के समय गोबर की खाद, सिंगल सुपर फॉस्फेट, म्यूरेट ऑफ़ पोटाश की पूरी मात्रा मिट्ठी में मिलाकर गढ्ढों में भर देना चाहिए। यूरिया की मात्रा दो बराबर हिस्सों में बांटकर या 50 ग्राम यूरिया दो माह बाद पौधे के पास डालना चाहिए। प्रत्येक वर्ष  मानसून की प्रथम वर्षा पश्चात् उपरोक्त उर्वरक पौधों को अवश्य देना चाहिए।

अंतराशस्य फसल:-

सिंचाई की समुचित व्यवस्था होने पर कुछ उपयुक्त दलहनी व तिलहनी फसले जैसे – चना, मटर, मूंगफली, उड़द, मुंग, सरसों, तिल, मसूर, सोयाबीन, इत्यादि को अंतराशस्य के रूप में ली जा सकती है।

कटाई-छटाई:-

अधिक बीज उत्पादन के लिये अधिक शाखाओं को विकसित करने की आवश्यकता होती है अतः इन शाखाओं को विकसित करने के लिए हमें तीन वर्ष बाद कटाई-छंटाई करनी पड़ती है।

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पुष्पन और फलन:-

अप्रैल-जुलाई महीनों के दौरान इसके कक्षा रथ गुच्छे में सफेद तथा बैंगनी रंग के फूल खिलते है। सामन्यतया नवंबर-दिसंबर तथा अप्रैल से जून महीनों में फलों की तुड़ाई की जाती है। प्रत्येक पेड़ से लगभग 10-15 किलोग्राम तक गिरी प्राप्त होती है।

कीट-पतंगों एवं बीमारियों का का नियंत्रण:-

कीट-पतंगे:-

लीफमाइनर (एक्रोसेराकॉप्स) एवं फलिएज फीडरद (यूकोस्मा बेलेनोपाईका) ये सामन्यतः अगस्त-सितंबर महीनों के दौरान नुकसान पहुंचाते है। मोनोक्रोटोफॉस 0.01% (ई.सी.) के छिड़काव से इन्हे नियंत्रित किया जा सकता है।

बीमारियां:-

डपिंग ऑफ (एस्परजीलस फ्लेवस, फुसेरियम एक्युमिनेटम एवं माइक्रोफेमिना फेसिलिना), रस्ट (रेवेनेलिना होबोसोनी), अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट (अल्टरनेरिया सोलानी)अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट (अल्टरनेरिया सोलानी)

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उपयोग:-

  • करंज के पेड़ खुशबूदार फूलों के लिए इसे उद्यानों, चोदे मार्गों व् सड़क के किनारे सजावट के लिए उगाने और लाख के कीटों के परपोषी पेड़ के तोर पर लगाए जाते है।
  • इसकी छाल से काले रंग का लस्सा अथवा गोंद सा निकलता है जिसे जहरीली मछली के काटने से हुए घाव के उपचार के लिए उपयोग में लाया जाता है।
  • करंज की सुखी पत्तियों को अनाज के भंडारण के लिए कीट-नाशक के तौर भी प्रयुक्त किया जाता है।
  • लकड़ी का उपयोग केबिन बनाने, खींचने वाली गाडी तथा खंबे आदि बनाने एवं जलावन के तौर किया जाता है।
  • करंज पेड़ की जड़ से प्राप्त रस को मवाद भरे घावों के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके बीजों को पीसकर एंटीसेप्टिक (मलहम) के तोर पर उपयोग किया जाता है।
  • करंज के बीजों में तेल पाया जाता है। इसे चमसे की धुलाई, साबु, छालों के उपचार, हर्पिस तथा गठिया के इलाज के लिए उपयोग किया जाता है।
  • तेल और इसका अपशिष्ट भाग दोनों ही विषाक्त होते है फिर भी इसकी खली को एक उपयोगी पोल्ट्री आहार के बतौर मन जाता है।
  • इसके रस का उपयोग जुकाम, खांसी, डायरिया, डिस्पेप्सिया, फलोटुलेंस एवं कुष्ट रोग के उपचार के लिए उपयोग किया जाता है।
  • मसूड़ों, डेंटन तथा जख्मों की सफाई के लिए इसकी जड़ों से प्राप्त रास को प्रयुक्त किया जाता है।
  • पत्तियों एवं टहनियों से प्राप्त खाद को खेत में डालने से सूत्रकृमि (मेलॉइडोगामाने जेवेनिका) के प्रकोप को दूर करता है।

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