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कांगणी की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

Written by Vijay Gaderi

राजस्थान में छोटे खाद्यान्न की फसलों का क्षेत्रफल लगभग 35 से 45 हजार हेक्टर है। इन खाद्यान्नों की प्रमुख फसलें कांगणी, चीना, रागी, कोदो, सांवा व कुटकी है। कांगणी दक्षिण राजस्थान के गरीब व आदिवासी बहुल्य शुष्क क्षेत्रों की फसल है तथा इसे कान / काकुन आदि नामें से भी जाना जाता है। यह कम उपजाऊ असिंचित भूमि तथा अरावली पर्वतमाला की ढलाऊ जमीन पर सफलतापूर्वक क्रमश: दाने व चारे के लिये उगाई जाती है। राजस्थान में औसतन कम वर्षा होने से प्रायः अकाल व सूखे की स्थिति बनी रहती है, किन्तु ऐसी परिस्थिति में कांगणी पशुओं के लिये चारा प्रदान करती है।

कांगणी

फसल शीघ्र पकने वाली व सूखा सहन करने की क्षमता रखती है। इस पर कीटो एवं रोगों का आक्रमण नहीं के बराबर होता है तथा लम्बी अवधि का भण्डारण करने पर भी कीड़े नहीं लगते हैं। साधारणतया इसके दानों को पीसकर आटे से चपातियाँ बनाई जाती हैं तथा दानों को उबालकर चावल की तरह खाया जाता है। कांगणी का उत्पादन बढ़ाने के लिये उन्नत किस्में तथा शस्य क्रियाएँ इस प्रकार हैं।

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उन्नत किस्में एवं उनकी विशेषताएँ:-

अर्जुन:-

यह राष्ट्रीय अनुमोदित किस्म है तथा 12-14 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है व 80-85 दिन में पक जाती है। इसके पौधे 90 से 95 सें.मी. लम्बे होते हैं व लगभग 40 से 45 क्विंटल सूखे चारे की पैदावार देते हैं। इसका सिट्टा 13 से 15 सें. मी. लम्बा होता है।

एस.आई.ए. -326:-

यह भी राष्ट्रीय अनुमोदित किस्म है। इसकी पैदावार 11 से 13 क्विंटल प्रति हैक्टर है व 75 से 80 दिन में पक जाती है। इसके पौधे 85 से 90 सें. मी. लम्बे होते हैं व लगभग 30 से 41 क्विंटल सूखे चारे की पैदावार होती है। इसका सिट्टा 11 से 13 सें.मी. लम्बा होता है।

गवरी ( एस. आर. 11 ) (1995):-

यह किस्म राजस्थान के लिये हाल ही में अनुमोदित हुई है। यह किस्म दाने व चारे के लिये उपयुक्त पायी गई है। यह 15 से 16 क्विंटल प्रति हैक्टर की पैदावार देती है तथा से 80 दिन में पक जाती है। इसके पौधों की लम्बाई तुलनात्मक रूप से अधिक (125 सें.मी.) है तथा इसके सूखे चारे की उपज भी 45 से 50 क्विंटल प्रति हैक्टर है। इसके सिट्टे 16 से 20 सें.मी. लम्बे होते हैं।

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मीरा (एस. आर. 16 ) – (2000):-

राजस्थान के समस्त छोटे / लघु खाद्यान्न उगाये जाने वाले क्षेत्रों के लिये कांगणी की किस्म मीरा एक मध्यम ऊँचाई (105 सें.मी.) की द्विउपयोगी दाने एवं चारे के लिये उन्नत प्रजाति है। इसके दानों की पैदावार 15-17 क्विंटल प्रति हैक्टर एवं सूखे चारे की उपज 46 से 50 क्विंटल प्रति हैक्टर है। इसकी घनी पुष्प गुच्छावली (सिट्टे) जामुनी बैंगनी रंग लिये होती हैं जिस पर बैंगनी अंकुर होते हैं। पत्तियाँ चौड़ी, उर्ध्व एवं चमकदार होती है।

इसके पौधे लम्बे समय तक हरिच्छादित / विलम्बित जरत्व वाले हैं जिससे परिपक्वता पर 18-20 प्रतिशत अधिक हरा चारा प्राप्त होता है। यह किस्म 75-80 दिन में पक जाती है और मृदुरोमिल आसिता रोगरोधी है। इसका बीज बड़ा एवं क्रीम रंग लिये हुए है। मीरा का दाना एवं चारा उत्तम गुणवत्ता का एवं पौष्टिक है।

प्रताप काँगणी (एस. आर. 51) (2004):-

यह लम्बी (110130 से.मी.) द्विउपयोगी चौड़े पत्तों वाली जल्दी पकने वाली ( 62 68 दिन) किस्म है अर्द्ध घने सुनहरी संकुर लगे सिट्टे 18 – 25 सें.मी. लम्बे, उपज 16-18 क्विंटल दाना व 46- 50 क्विंटल सूखा चारा प्रति हैक्टर है। यह किस्म रोग व कीटों के लिए प्रतिरोधी तथा सूखा सहनशील है। दानें बड़े व क्रीम रंग के होते हैं।

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खेत की तैयारी:-

भूमि को एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2 से 3 बार देशी हल या हैरो से बजोत लेना चाहिये। दीमक की रोकथाम के लिये पुस्तक में दिये गये दीमक नियंत्रण शीर्षक के अनुसार उपचार करे । जुताई के पश्चात् उस पर पाटा चला दें, जिससे भूमि भुरभुरी तथा समतल हो जायें।

बीजोपचार:-

हल्के बीजों को निकालने के लिए 2 प्रतिशत नमक के घोल में डालकर अच्छी तरह बीजों को हिलायें। घोल को ऊपर तैरते हल्के बीजों को निकाल दें और पेंदे में बैठे बीजों को साफ पानी से धोकर सुखा लें। कवक जनित रोगों के लिए 3 ग्राम कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करें।

कांगणी की बुवाई:-

बोने का समय:-

इन फसलों की बुवाई जून के अन्तिम सप्ताह से मध्य जुलाई तक जब भी खेत में पर्याप्त नमी हो की जा सकती है।

बीज की मात्रा:-

8 से 10 किलोग्राम प्रति हैक्टर।

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बोने की विधि:-

साधारणतः बीज को छिटक कर या बिखेरकर बोया जाता है परन्तु अधिक उपज के लिये इन फसलों को 25 सें.मी. दूरी पर कतारों में बोना चाहिये। बीज को लगभग 3 सें.मी. गइराई पर बोयें।

खाद व उर्वरक:-

कारक(वर्षा, सचिंत, सिचिंत, किस्म, उपयोगिता )नाइट्रोजन किग्रा / हैक्टरफास्फोरस किग्रा / हैक्टरपोटाश किग्रा / हैक्टर
सामान्य4020 ( कमी होने पर)

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नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के समय तथा बची हुई मात्रा को निराई-गुड़ाई के बाद देवें।

सिंचाई व जल निकास:-

छोटे खाद्यान्न की फसल वर्षा के समय बोई जाती है। अतः पानी सम्बन्धी आवश्यकता वर्षा से ही पूरी हो जाती है। अच्छी पैदावार के लिये खेत में जल निकास का समुचित प्रबन्ध होना चाहिये। अतः समतल खेतों में 40-45 मीटर की दूरी पर गहरी नालियाँ बना लेनी चाहिये जिससे वर्षा का अतिरिक्त जल नालियों द्वारा खेत से बाहर निकल जाये।

निराई एवं गुड़ाई:-

अधिक अनाज की उपज के लिए फसलों में बुवाई के 30-40 दिन बाद कम से कम एक निराई-गुड़ाई तथा छंटाई अवश्य करें।

कीट व रोग नियंत्रण:-

साधारणतयाः छोटे खाद्यान्नों की फसल में हानिकारक कीट व रोग कम लगते हैं, पर तना छेदक व ईल्ली रोग की रोकथाम के लिये उपाय करें।

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