कालमेघ आयुर्वेदिक एवं होम्योपैथिक चिकित्सा पध्दति में प्रयोग किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पौधा है। इस पौधे के सभी भागों (तना ,पत्ती ,पुष्पक्रम) का प्रयोग दवा के रूप में किया जाता है। आमतौर पर यह वनों में जंगली रूप में पाया जाता है।कुछ दशकों से कालमेघ की औषधीय उपयोगिता को देखते हुए इस पर शोधकार्य किए गए तथा कृषि तकनीक विकसित की गई और इसकी खेती को प्रचलन में लाया गया।कालमेघ की खेती उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, असम, केरल, तमिलनाडु एवं उड़ीसा में की जा रही है।
पौध परिचय:-
कालमेघ (एंडोर ग्रॅफिसपेनिकुलेटा )एकेंथिएसी कुल का पौधा है, जिसे कल्पनाथ तथा भूइनिंबा आदि नामों से भी जाना जाता है। इसमें डाइटरपेनाइड – एंड्रोग्रेफेलाइड एवं निओ – एंड्रोग्रेफेलाइड नामक रासायनिक घटक पाए जाते हैं।यह एक सीधे बढ़ने वाला शाकीय पौधा है। इसकी पत्तियां सरल तथा चिकनी होती हैं। फूल सफेद, गुलाबी तथा बैंगनी धब्बे युक्त होते हैं।
औषधीय उपयोग:-
इसके संपूर्ण शाक को यकृत विकार, हेपेटाइटिस, पेचिस ,कब्ज , लीवर, तीव्रज्वर , कफ आदि बीमारियों को ठीक करने के लिए आयुर्वेदिक तथा होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति में दवाओं को बनाने हेतु प्रयोग में लाया जाता है।
जलवायु:-
इसके अच्छे विकास के लिए गर्म एवं नम जलवायु तथा पर्याप्त सूर्य प्रकाश की आवश्यकता होती है। मानसून आने के बाद पोधे की वृध्दि अच्छी होती है।सितंबर के मध्य जब तापक्रम न ज्यादा गर्म न ज्यादा ठंडा हो, फूल बनना शुरू हो जाता है।दिसंबर मध्य में पौधों पर फलिया बनना शुरू हो जाती है।
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मृदा :-
पौधे के अच्छे विकास के लिए अच्छी उर्वरा शक्ति वाली मृदा ,जिसकी जलधारण क्षमता अच्छी हो उपयुक्त होती है। भूमि का जलनिकास भी अच्छा होना चाहिए। बलुई दोमट से दोमट मिट्टी में कालमेघ की खेती अच्छे उत्पादन के साथ की जा सकती है।
प्रवर्धन:-
कालमेघ का प्रसारण विशेष परिस्थितियों में पौधों की गाठों पर लेयरिंग विधि द्वारा कर सकते हैं। बीज द्वारा मई के तीसरे सप्ताह में 1 हेक्टेयर कालमेघ लगाने के लिए 300 – 400 ग्राम बीज 10 मीटर लम्बी तथा 2 मीटर चौड़ी तीन क्यारियो में बोते हैं।इसके बीज का अंकुरण 70 से 80% होता है।नर्सरी बनाने के लिए किसी छायादार स्थान का चुनाव करना चाहिए। अच्छे जमाव के लिए मल्चिंग का प्रयोग भी करना चाहिए।सुखी घास ,पुआल तथा पेपर आदि का प्रयोग अच्छा रहता है। खेत में सीधी बुवाई करने पर 2 से 2.5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। खेत में सीधी बुवाई करने पर 2 से 2.5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।
भूमि की तैयारी और पौध रोपण:-
पहली जुताई मिट्टी पलट हल से तथा एक दो जुताई देशी हल या हेरो से करके पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।समतल खेत में क्यारियां बनाकर जून के दूसरे सप्ताह से जुलाई तक (1 महीने का पौधा) पौधरोपण कर देना चाहिए। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 -60 सेंटी मीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 15 से 45 सेंटी मीटर के अंतर पर रखनी चाहिए। प्रतिओ हेक्टेयर 2 से 2.5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।
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प्रजातियां:-
‘सीममेघा’ कालमेघ की अधिक उत्पादन देने वाली एक उन्नतशील प्रजाति है।
खाद एवं उर्वरक:-
10 से 15 टनअच्छी तरह पक्की हुई गोब रकी खाद अथवा 5 टन वर्मीकंपोस्ट प्रति हेक्टेयर का प्रयोग खेत की तैयारी के साथ करना चाहिए।अच्छीउपजकेलिएनत्रजनकी 80 कि.ग्रा., फास्फोरस की 40 किलोग्राम एवं पोटाश की30 किलोग्राम मात्रा पर्याप्त है। फास्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग रोपाई से पहले खेत की तैयारी के समय करना चाहिए। नत्रजन की मात्रा दो भागों में विभाजित करके 30 से 45 दिन के अंतर पर प्रयोग करना चाहिए।
निराई- गुड़ाई:-
फसल की अच्छी पैदावार के लिए निराई गुड़ाई करना बहुत आवश्यक होता है।पौधों की वृद्धि के लिए एक से दो निराई गुड़ाई की आवश्यकता होती है।
सिंचाई:-
रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करनी चाहिए। कालमेघ वर्षा ऋतु की फसल है, इसलिए ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती हैं, लेकिन फिर भी वर्षा के न होने या वर्षा ऋतु से पहले दो से तीन सिंचाई की आवश्यकता होती है।
किट व बीमारियां:-
इस फसल पर आर्थिक रूप से नुकसान करने के वाले कीटो एवं बीमारियों का प्रकोप आमतौर पर नहीं देखा गया है।
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कटाई:-
90 से 100 दिन के उपरांत शाक उपज प्राप्त करने हेतु पौधों की कटाई (जब पौधों से पतिया गिरना प्रारंभ हो) कर लेनी चाहिए। कटाई की ये शाक को छायादार स्थान पर चुकाना चाहिए।
उपज:-
उपरोक्त सभी क्रियाओं का प्रबंधन करके 3.5 से 4 टनशाक प्राप्त किया जा सकता है।
फसल चक्र:-
निम्नलिखित फसल चक्र को अपनाकर उत्पादन क्षमता बढ़ाने केसाथ-साथ अधिक आय भी प्राप्त की जा सकती है।
अगेतीमक्का- कालमेघ – गेहूं
सब्जी- कालमेघ- गेहूं
भंडारण एवं प्रसंस्करण:-
सक्रिय अवयव संपूर्ण पौधे में पाए जाते हैं। इसलिए संपूर्ण पौधे के ऊपरी भाग को काटकर छाया में सुखाया जाता है। सुखाने के लिए शाक को बड़ा ढेर लगा हीं रखना चाहिए।शाक की कुछ पतली परत फैला देनी चाहिए तथा समयानुसार पलटते भी रहना चाहिए। सूखे हुए पौधे को पीसकर चूर्ण बना लेते हैं।पाउडर बनाने से पहले शुष्क शाक को नमीरहित ,शुष्क तथा हवादार स्थान पर रखना चाहिए। कालमेघ के चूर्ण को टिन के शुष्क डिब्बो में भंडारित करना चाहिए।
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आय- व्यय:-
आय और व्यय का विवरण प्रति हेक्टेयर की दर से है:-
- कृषि कार्यों में व्यय- 1200 रुपए
- आय प्रति हेक्टेयर 3.6 टन शुष्क
- शाकीय पैदावार ₹10000 प्रति टन- रुपए 36000
- शुद्ध लाभ प्रति हेक्टेयर 23500
ध्यान रखने हेतु महत्वपूर्ण बातें:-
- भूमि का चुनाव करते समय भूमि की जलधारण क्षमता एवं जल निकास प्रबंधन को भली-भांति अध्ययन कर लेना चाहिए।
- फसल में प्रयोग होने वाले गोबर की खाद कीड़ों एवं खरपतवारों के बीजों से मुक्त होनी चाहिए।
- फसल में खरपतवारों की वृद्धि ना हो पाए इसलिए समय-समय पर खरपतवारों को निराई के माध्यम से निकाल देना चाहिए, जिससे मुख्य फसल का विकास सही प्रकार से हो पाए। सिंचाई के दौरान यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि खेत में पानी पौधे की जरूरत से ज्यादा ना हो, अर्थात खेत में पानी बहुत अधिक मात्रा में नहीं देना चाहिए।
- नर्सरी बनाने हेतु क्यारियों को 5-6 इंच ऊंचा उठाकर बनाना चाहिए जिससे की क्यारियों में जल भराव की समस्या ना हो।
- बीजों का अंकुरण ठीक प्रकार से हो इसके लिए मल्चिंग का प्रयोग करना चाहिए।मल्चिंग के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पदार्थ संक्रमण रहित होने चाहिए।
- फूल निकलते समय कालमेघ की पत्तियों में एन्ड्रोग्रेफेलाइड तत्व की मात्रा अधिक होती है तथा यह पौधे के संपूर्ण भाग में पाया जाता है, इसलिए पौधे के सम्पूर्ण भाग को काटकर छाया में सुखाना चाहिए।
- पौधे की पत्तिया अथवा पत्तियों का चूर्ण बनाकर सीधे केंद्र पहुंचाया जा सकता है।पाउडर का भंडारण करने के लिए हमे शुष्क स्थान का चुनाव करना चाहिए।
- उपरोक्त सभी बताई गई कृषि तकनीक को अपनाकर आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति में कालमेघ की बढ़ रही मांग को पूरा किया जा सकता है, तथा इसके साथ ही अच्छी आय भी प्राप्त की जा सकती है।
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