kheti kisani उन्नत खेती बागवानी

केले की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

केले
Written by Vijay Gaderi

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उगने वाला शाकीय श्रेणी का फल केला मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त उपयोगी है। रोगों के निवारण के साथ ही मनुष्य के स्वस्थ्य के लिए भी यह अत्यन्त लाभकारी है। यह कच्चा और पक्का दोनों रूपों में प्रयोग किया जाता है। प्रचुर लौह तत्व युक्त इसके सभी अंगों का अलग-अलग शारीरिक समस्याओं के निवारण क्षमताओं का धारक है। (केले की उन्नत खेती Banana Farming)

केले

भारतीय मूल के इस बहुचर्चित फल का मूल स्थान अरुणाचल प्रदेश का वह भू-भाग है, जो म्यांमार तथा चीन की सरहद से सटा हुआ है। यद्यपि कुछ लोगों का मत है कि यह अफ्रीकी मूल का फल है। ईसा से 327 ई-पूर्व जब सिकन्दर ने सिंधु घाटी में केले के वृक्षों को फल से लदा देखा तथा पके फलों को खाया, तब उसे अपार खुशी हुई। सांतवी सदी में अरब के व्यापारियों ने केले को अरब तथा मिस्र में पहुँचाया जब वास्कोडिगामा भारत की तरफ आ रहा था, तो अफ्रीका के पश्चिमी तट पर उसे पहली बार केले की खेती दिखाई पड़ो का जाता है कि अंग्रेजी शब्द “बनाना” पश्चिमी अफ्रीका की गिन्नी भाषा में प्रचलित से विकसित हुआ है।

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केले को भारत के विभिन्न प्रांतों की विभिन्न भाषाओं में अलग अलग नामों से जाना जाता है। जो इस प्रकार है-

संस्कृत में कदली, वारगा, भौज्वा, हिन्दी मैं केला, मराठी में अरंटी, फारसी में माज, अरबी में तना, बंगला में कला, केरा, अंग्रेजी मैं प्लान्टेन बनाना। इसका वास्तविक नाम ‘मुसापैराडिसएका’ है। यह ‘मुझेसी’ कुल की वनस्पति है।

प्राचीन युग में केलाः-

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भी केले की चर्चा मिलती है। हिन्दू परिवारों के पूजा-पाठ शादी-ब्याह के अलावा अन्य समस्त मांगलिक अवसरों पर इसके पत्ते फल और पेड़ का उपयोग होता है। बंगाल में केले के है। पत्ते पर भोजन करना मंगलकारी और शुद्धता का प्रतीक माना जाता है। दक्षिण भारत में भी मेहमानों को केले के पत्ते पर भोजन कराना सम्मान का सूचक माना जाता है।

कच्चा केला मीठा, ठंडी तासीर वाला, ग्राही भारी तथा स्निग्ध होता है। यह पित्त विकार, रक्त विकार, रक्तपाद, प्यास, जलन घाव, क्षय एवं वायुशामक है। पका केला मधुर, शीतल पाक में मधुर रतिशक्तिवर्द्धक तथा पौष्टिक होता है। इसके सेवन से भूख प्यास, नेत्र रोग एवं प्रमेह का नाश होता है। यह रूचिकारक तथा मांस का पोषक है। दस्त की बीमारी में, जब कोई आहार नहीं पचता । पका केला दस्त को बांधने के लिए उपयोगों होता है। एक केले को खाकर ऊपर से दूध पीने से वीर्य में वृद्धि होती है।

केले के फूलों की सब्जी स्निग्ध, मधुर, काषाय, गुरु एवं शीतल होती है। यह वात-पित्तजनित रोगों, रक्तपिस एवं क्षय रोग में विशेष लाभप्रद होती है। केले का कंद शीतल, बलवर्धक, केशों के लिए हितकर अम्लपित्तनाशक, अग्निदीपक और मधुर होता है।

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इसमें पाये जाने वाले रासायनिक तत्व:-

केले में शरीर के प्राय: सभी पोषक तत्व पाए जाते हैं। सौ ग्राम केले में कैल्शियम 17 मि. ग्रा./ फॉस्फोरस 36 मि.ग्रा., लौह 0.9 मि.ग्राम पोटेशियम 68 ग्राम तंतु 0.5 ग्राम, विटामिन ए 68 माइक्रोग्राम, विटामिन ‘सी’ 7 मि. ग्राम और प्रोटीन 1.2 ग्राम होता है। इसके अलावा महत्वपूर्ण एंजाइम, सल्फर, तांबा, विटामिन ‘बी’ तथा अन्य विटामिनों की उपस्थिति भी पर्याप्त मात्रा में होती हैं। इसमें शर्करा 20 -प्रतिशत तथा 116 कैलोरी ऊर्जा होती है।

वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि केले में 22 से 25 प्रतिशत तक कार्बोहाइड्रेट है, जो आलू में भी है, लेकिन आलू में कार्बोहाइड्रेट स्टार्च के रूप में होता है, जबकि पके केले में यह स्टार्च ईक्षु शर्करा एवं द्राक्ष शर्करा के रूप होता है, जो छोटे बच्चों के द्वारा सहज में ही हजम कर लिया जाता है। केले में जो कैल्शियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस, तांबा, कॉपर सल्फर, लौर आदि खनिज तत्व होते हैं. वे रक्त की क्षारीयता को बढ़ाते हैं, जिससे वात, गठिया जैसे अम्लता जनित रोगों से बचाव होता है। इसमें पाए जाने वाले लौह और तांबा ताय शरीर में शीघ्र ही रक्त तत्व हीमोग्लोबिन को बनाने में प्रयुक्त हो जाते हैं। अतः रक्ताल्पता के रोगियों के लिए केला विशेष लाभदायक है।

पके केले में विटामिन भी होता है जो संक्रामक रोगों से बचाता है और विटामिन ‘सी’ भी पाया जाता है, जो स्वास्थ्यवर्द्धक है। पके कले में प्राटीन अल्प मात्रा में होते हुए भी उच्चकोटि की होती है। सोडियम क्लोराइड तथा प्रचुर मात्रा में कार्बोहाइड्रेट होने से गुर्दे की बीमारियों के लिए यह लाभकारी होता है।

चीनी लोग प्राचीन काल में केले के फल का प्रयोग पीलिया, सिरदर्द, खसरा और पेट की कई बीमारियों में करते थे। आयुर्वेद में पके केले को ठंडा, रूचिकारक, पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, रक्त विकास शामक, मांसवर्द्धक, पथरीनाशक, रक्त पित्त को दूर करने वाला, प्रदर व नेत्र रोगों में उपयोगी बताया गया है। काय चिकित्सा के जनक महर्षि चरक के अनुसार भोजन के बाद नियमित केले का फल खाने से मनुष्य निरोगी रहता है।

केले का उपयोग:-

केले के कच्चे-पके फल फूल और तने के बीचों-बीच पाये जाने वाले सफेद चार (राड) जमीन के अन्दर का राइजोम तथा तने के रस में भी प्रचुर लौह तत्व होता है। इसके कच्चे फल के अलावा फूल और मध्य स्थिराड (थोर) की सब्जी का प्रयोग बंगाल और उड़ीसा के लोग प्रचीन काल से करते गुल रहे हैं। केले के तने के छिलके तथा पत्तियों से होता है। प्राप्त रेशों से चटाई तथा कपड़ा बनाया जाता है। कैले से बनने वाले व्यंजन: आहार के रूप में केले के कई तरह के व्यंजन बनाकर प्रयोग किए जाते हैं। कच्चे केले की सब्जी, बोंडा, बिरयानी, जैम, कचौड़ी, बर्फी, अचार कोपता आदि व्यंजन बनाएं जाते हैं। ये सभी व्यंजन स्वादिष्ट तथा रूचिकर तो होते ही हैं, साथ ही पौष्टिक स्वास्थ्यवर्द्धक, बलकारक एवं रोगनाशक भी होते हैं।

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भारत में पाई जाने वाली केले की प्रमुख प्रजातियाँ:-

बसराई डवार्फ:-

इसका पौधा काफी छोटा होता है। केवल 15- 1.8 मीटर ऊँचा होता है। फल लम्बे हुए हल्की पीली या हरी गुदा मुलायम तथा मोठा होता है। फलों के मुच्छे का। वजन 27 किलो तक होता है, जिसमें 130 तक फल होते हैं। यह ऐसे क्षेत्रों में पैदा किया जाता है जहाँ जलवायु सूखी पायी जाती है तथा तेल हवायें चलती है।

यू-वनः-

इसका पौधा लम्बा तथा पतला होता फल छोटे उनकी चाल पीली तथा पतली, कहाँ गुदार मोठी एवं स्वादिष्ट होती है। फलों का गुच्छ लगभग 22- 23 किलोग्राम तथा वजन का होता है, जिसमें 225 के आस पास फल पाये जाते हैं। यह तमिलनाडु बंगाल तथा असम की प्रमुख प्रजाति है।

हरी छाल:-

यह केला मुम्बईया हरी छाल जाति से मिलती-जुलती है, लेकिन पकने पर छा अपेक्षाकृत अधिक हरी रहती है। पौधा 3.5 से 3.6 मीटर ऊँचा होता है। फलों के गुच्छे का वजन 27-28 किलोग्राम होता है, जिसमें लगभग 160-165 फल होते हैं।

रसथाली:-

यह प्रजाति पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं असम में अधिक मात्रा में उगाई जाती है। यह अधिक वर्षा को सहन कर सकता है। इसका पौधा लम्बा, छाल पतली तथा पकने पर पीलापन लिये रहता है। फलों के गुच्छे का वजन 18 किलोग्राम तक होता है, जिसमें लगभग 130 फल होते हैं।

सफेद वेलची:-

इसका पौधा लम्बा तथा पतला होता है। कागज की तरह पतली होती है। हवायें पौधों को जड़ सहित उखाड़ देती है। रोता है है, सफेद, मीठे स्वाद में कुछ स्टार्ची होता है।

लाल केला:-

भारत में उत्पन्न होने वाले केलों में आवश्यकता होती है। या सबसे शक्तिमान फैला है। इसका पौधा 3.6 मिट्टी केले के लिए गहरी तथा नमी को अधिक से 46 मीटर लम्बा होता है। फलों का रंग पकने पर लाल हो जाता है। फल लम्बा तथा होता है। गूदा सफान रंग वाला, मीठा तथा अच्छी खुशबू वाला होता है।

पहाड़ी केला:-

ये ऐसे केलों का समूह है, जो निचले पहाड़ों पर जैसे तमिलनाडु के नीलगिरी मदुराई, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में उत्पन्न किया जाता है। समुद्र तल से 600-1500 मीटर की ऊँचाई तक पैदा किये जाते हैं। इसकी मुख्य प्रजातियाँ बोरूपाक्षी तथा राजपुरी है।

नेनड्रान:-

यह केलों को ऐसा समूह जो सब्जियों के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके पौ9 27 से 3.6 मीटर लम्बे होते हैं। फलों का छोटा होता है। फल लम्बे 22.5 से 25.00 से. मी. आकार वाले होते हैं। मोठा गूदा कड़ा तथा स्टायों लेकिन मीठी हाती हैं। कच्चे फल को सब्जी के लिए तथा एक फल को खाने के लिए प्रयोग करते हैं।

मन्थन:-

यह भी केले की सब्जी वाली प्रजाति है, जो मुख्यतया करल, तमिलनाडु तथा महाराष्ट्र के कुछ विशेष क्षेत्रों में पैदा होती है। इसका पौधा लम्बा तथा मजबूत होता है। फलों का गुच्छा छोटा तथा फल बड़े मी तथा रसगुल होते हैं। छाल बहुत मोटी तथा पीली होती है। कच्चा फल सब्जी तथा काफल खाने के रूप चाहिए। मैं उपयोग किया जाता है।

को-1:-

यह ए. ए. बी. तथा बी.बी. के संस्करण से प्राप्त संकर प्रथम संतति ए.बी. को कदली (ए.ए.) संकरण के पश्चात विकसित की गई है। यह किस्म (ए.ए.बी.) समूह में आती हैं।

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केले की खेती:-

जलवायुः-

केला उष्ण जलवायु का पौधा है, जो कि भूमध्य रेखा के दोनों तरफ गर्मतर जलवायु के ऐसे क्षेत्रों में अधिक मात्रा में पैदा किया जाता है, जहाँ वर्षा अधिक होती है। यह मध्य तथा उत्तरी भारत में ऐसे क्षेत्रों में पैदा नहीं किया जाता है जहाँ पर गर्मियों में गर्म हवाएँ चलती है तथा जाड़ों में पाला पड़ता है, क्योंकि तेज हवायें पौधों को जड़ सहित उखाड़ देती है। केला उत्पादन के लिए औसत तापक्रम 20-30 सेन्टीग्रेट तथा 500-2000 मिली मीटर वर्षा की आवश्यकता होती है।

मिट्टी:-

केले के लिए गहरी तथा नमी को अधिक दिनों तक रोकने वाली और प्रांगरिक पदार्थ से परिपूर्ण मिट्टी की आवश्यकता होती है। समुद्र के डेल्टा की रेतीली दोमट, गहरी जलोड़-दोमट मिट्टी जो उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग में गंगा नदी के किनारे तथा उत्तरी भारत के बहुत से क्षेत्रों में पायी जाती है, ऐसी मृदा केले के उत्पादन के लिए अच्छी मानी जाती है।

प्रवर्धनः-

केले का प्रसारण अधोमूस्तारी (बगल से निकलने वाले पौधे) द्वारा वानस्पति तरीके से किया जाता है। यह दो प्रकार का होता है-

  1. नुकीला अधोमूस्तारी ( पुत्ती ):- इसका प्रयोग ज्यादातर किया जाता है।
  2. चौड़ी पत्ती वाला अधोमूस्तारी (पुत्ती):- इसका प्रयोग नहीं किया जाता है।

रोपण:-

पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में केला लगाने का सबसे अच्छा समय दक्षिणी पश्चिमी मानसून की शुरूआत में जुताई का महीना माना जाता है। दक्षिण भारत में यह सितम्बर अक्टूबर तथा कुछ क्षेत्रों में यह दिसम्बर माह में भी लगाया जाता है। केले के गड्डों को खाद तथा मिट्टी के मिश्रण से भरकर अधोमूस्तारी (छोटे पौधे) को लगा देना चाहिए। केले के पौधे को कर्म व तेज हवाओं से बचाने के लिए वायु वृत्ति या सेल्टर लगा देना चाहिए।

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सिंचाई:-

पौधों को लगाने के तुरन्त बाद, अगर वर्षा नहीं होती है तो सिंचाई कर देना चाहिए। केवल वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष सभी ऋतुओं में पौधों की सिंचाई करनी चाहिए। गर्मियों में 6-7 दिन के अन्तर में तथा अक्टूबर से शरद ऋतु तक 10-15 दिन के अन्तर से सिंचाई करनी चाहिए।

खादः-

केले की अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए 10 किलोग्राम गोबर की खाद, 200 ग्राम नात्रजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस तथा 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधा से देना चाहिए।

मिट्टी चढ़ाना:-

पौधों को तेज हवाओं से बचाने के लिए वर्षा ऋतु के बाद मिट्टी चढ़ानी चाहिए।

निराई-गुड़ाई:-

जब तक पौधा पूर्ण रूप से विकसित न हो जाय तब तक पौधों की निराई-गुड़ाई आवश्यकतानुसार करते रहना चाहिए।

सहारा देना:-

केले के फलों का गुच्छा भारी होने के कारण पौधे नीचे की ओर झुक जाते हैं। अगर उनको सहारा न दिया जाये, तो वे उखड़ भी जाते हैं। अतः उनको बांस की बल्ली या दो बांस को आपस में बांधकर कैंची की तरह बनाकर फलों के गुच्छे में लगाकर सहरा देते हैं।

गुच्छों का ढकनाः-

पौधों पर गुच्छा आ जाने पर वह एक तरफ झुक जाते हैं। अगर उनका झुकाव पूर्व व दक्षिण की तरफ हो, तो फल तेज सूर्य के प्रकाश के कारण खराब हो जाते हैं। अतः इसे बचाने के लिए केले के पौधे के ऊपर वाली पत्तियों से ढक देना चाहिए।

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फलों का तोड़ना:-

जब केले के पौधों की ऊपरी पतियाँ सूखने लगे तथा फलों का रंग कम हरा दिखे तो उनके गुच्छों को तेज चाकू से काट देना चाहिए।

फलों को पकाना:-

फलों को निम्नलिखित विधियों द्वारा पकाया जा सकता है:-

  1. एक कमरे में 3/4 भाग पत्तियाँ डालकर उसमें फलों को रखकर लकड़ी के धुएँ से पकाया जा सकता है।
  2. फलों को सूखी पत्तियों में दबाकर पकाया जा सकता है।
  3. रसायनिक पदार्थों (कैल्शियम कार्बाइट) द्वारा पकाया जा सकता है।

भण्डारण:-

13 सेन्टीग्रेड तापमान और 85-95 प्रतिशत आर्द्रता पर केले को लगभग एक सप्ताह तक भण्डारण किया जा सकता है।

टिश्यू कल्चर प्रविधि से केले की खेती:-

  • ऊतक संवर्धन से केले के सभी पौधों का उत्पादन समान वृद्धि दर एक जैसी, जल्दी घौद तथा एक ही समय बौद तैयार होती है। इन सबसे ऊपर रोग की चिन्ता से मुक्त होकर खेती निश्चिंतता से की जा सकती है।
  • सामान्य केले के पौधों की उम्र अलग-अलग होती है। बौद देर से और अलग-अलग समय पर निकलता है तथा घौद काटने का सिलसिला लंबे समय तक चलता है।
  • कैवेन्डिश श्रेणी के ऊतक सवंर्धि पौधों में साधारण केले से 40-65 केले प्रति पौधा अधिक निकलते हैं।
  • ऊत्तक संवर्धन वाले पौधे से जल्दी फल मिलता है। इसका मतलब कि साधारण केले की तुलना में अल्पावधि में आय संभव है।
  • बाजार भाव के अनुसार अधिक आय के उद्देश्य से उचित समयानुसार उत्तक संवर्धित केले से लगातार अत्यधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है, जो साधारण केले में संभव नहीं है।

उत्तक संवर्धन से प्राप्त खेती के लिए उपयोगी प्रजातियाँ:

  1. बौनी कैवेन्डिशः-

पौधा 5 फुट 6 इंच ऊँचा, घौद आने में 8 महीने लगते हैं और वजन 30-32 कि.ग्रा. घौद में फलों की संख्या 190-225 तक हरा, स्वादिष्ट फल, दूर ले जाने के लिए उपयुक्त जाति।

  1. रोबॉस्टा:-

पौधे 7 फुट 6 इंच ऊँचा द आने में 8 महीने लगते हैं और वजन 38-40 कि.ग्रा. घौद में फलों की संख्या 200-240 तक। हरी जाति का स्वादिष्ट फल, दूर तक ले जाने के लिए उपयुक्त।

  1. ग्रेन्डेनाइन:-

पौधा 8 फुट ऊँचा तथा घौद आने में 8 महीने का प्रजाति समय लगता है। घौद का कुल वजन 30-32 कि.ग्रा. और उसमें फलों की संख्या 190-220 तक। हरी जाति का अत्यत स्वादिष्ट केला। नियमित सिंचाई से फलों की संख्या में वृद्धि होती है।

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द्वितीय रोपणी से पौधों की परिपक्वताः-

  • आप 10-12 से.मी. लंबी जाली में लगे हुए पौधे पाएंगे।
  • पौधा प्राप्त करने से पहले आप 20 से.मी. X 15 से.मी. ( 8x 6 इंच) को पॉली बेग (200 गज) की व्यवस्था कर लें ।
  • प्रत्येक पॉलीबेग के लिए एक भाग मिट्टी, 2 भाग सड़ा गोबर, कंपोस्ट और एक भाग बालू मिश्रित खाद तैयार करें। प्रत्येक पॉलीबैग में 1-1.2 कि.ग्रा. मिश्रण लगता हैं।
  • पॉलीबैग के चारों तरफ 20 छोटे-छोटे छिद्र कर दें ।
  • पौधे को पॉलीबैग में लगाने से पहले जाली के ऊपरी रिंग में दो तीन जगह काट दें।
  • पौधा लगाने के बाद पॉलीबैग को 20 से. मी. (8-8 इंच) की दूरी पर रख दें ।
  • पौधा रखने से पहले पांच फुट ऊँची एक मचान बनाकर उसके ऊपर नाइलोन की जाली या नारियल के सूखे पत्ते को इस प्रकार रखें कि पौधों को 50 प्रतिशत छाया मिल सके।
  • 1200 पौधों के लिए 20 वर्ग मीटर जगह की आवश्यकता होती है।
  • पॉलीबैग में पौधों के लगाने के 2 सप्ताह बाद एक ग्राम सुफला (15:15:15) प्रति लीटर जल में घोलकर पॉलीबैग की मिट्टी में उपयोग करें।
  • अनुकूल वातावरण में 55-60 दिन में पॉलीबैग में लगाया गया पौधा खेत की जमीन में लगाने योग्य हो जाता है।
  • द्वितीयक रोपणी (सेकेन्डरी नर्सरीं) में लगने वाले रोग और कीड़ों की रोकथाम के लिए 1.5 मि.ली. मोनोक्रोटोफॉस और में 1 ग्रा. कार्बण्डाजिम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर कर देना चाहिए।

प्रजाति के अनुसार गड्ढे का निर्धारण:-

प्रजातिदुरीएकड़ के पौधों की संख्या
बौनी केवेन्डिश5 फुट 6 इंच x बौनी 5 फुट 6 इंच ( 165 सेमी x165 सेमी)1440
रोबॉस्टा, ग्रेन्डेनाइन6 फुट X 6 फुट (180 सेमीX 180 सेमी)1210

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अच्छे फसल के लिए निम्न तालिका के अनुसार खाद देना चाहिए:-

पौधा रोपाई के पश्चात्कैल्शियम या अमोनियम नाइट्रेटप्रति पौधा उर्वरकों की मात्रा (ग्राम.)
यूरिया सल्फेटअमोनिया सल्फेटसुपर फॉस्फेटम्यूरेट पोटाश
30 दिन704510012550
75 दिन1759019512585
110 दिन22011024512585
150 दिन220110245125100
180 दिन1759019512585
घोद आने का समय    85

केले की खेती में लगने वाले रोग और कीटों का निवारण:-

कीट-पतंग/रोगलक्षणरोकथाम
राइजोम पुन (बीविल)पौधे के जड़ में आक्रमण करके सुरंग बनाता है।

आक्रांत जगह पर अन्य जीवाणु रोगाणु आक्रमण करते हैं।

पौधा लगाने से पहले और बाद में 20 ग्राम फ्यूरॉन 3 जी या 12 ग्राम थॉयमेंट 10 जी या 1-2 कि.ग्रा. नीम की खली प्रति पौधा उपयोग करने से समस्या का समाधान हो सकता है।
माहूँपत्ते और पूरे पौधे में इनका आक्रमण होता है। आक्रमण के कारण पत्ता छोटा होकर सिकुड़ जाता है। गोद छोटा होता है। इसके कारण चुउ (बंची टॉप) नामक बीमारी होती है, क्योंकि यह विषाणु का प्रतिवाहक है।मेटासिस्टॉक्स 1.25 मि.ली. या नुवाकॉन 1.25 मि.ली. या डायमेकॉन 0.5 मि.ली. प्रति लिटर पानी में घोल का छिड़काव करें।
बोटिल भूगमुलायम पत्ते और फल के छिलके को खाता है। और बीच के पत्ते में रहकर पौधे को क्षति पहुँचाता है।क्लोरोपाइरिफॉस 1 मि.ली. या सेविन 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
सूत्रकृमि (नेमाटोड)जड़ में काला दाग होने के बाद जड़ सड़ जाती है। पौधे की वृद्धि भी बाधित होती है।पौधा रोपने के बाद फ्यूरान या थिमेट के उपयोग से इसका आक्रमण कम किया जा सकता है। कृमिक प्रकोप वाले जमीन में केले को बीच में गेंदे के फूलों की खेती करने से भी इसका प्रकोप कम हो जाता है।
गुच्छित चूद (बंशी टॉप)
यह रोग विषाणु से होता है। पौधा बीना और पत्ते छोटे हो जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि केले के वृक्ष में एक की बजाय अनेक शीर्ष हैं। पत्ते के ऊपरी भाग और फल पर गाढ़े हरे रंग का लंबा लंबा दाग दिखाई देता है। ऐसे रोगग्रस्त पौधे से गौद नहीं निकलता है।
रोगग्रस्त पौधे को देखते ही उसे जड़ समेत उखाड़कर गड्ढे में दबा कोट पतंगों को नियंत्रित करने से इस रोग की संभावना क्षीण हो जाती है।

 

पत्तों में दाग धब्बेपुराने पत्ते पर बादामी रंग का दाग होता है जो धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और अंततः पत्तों को सुखा देता है। वर्षाकाल तथा कुहासों के समय इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।2 ग्राम कवच या 2 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति लिटर जल में घोलकर 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करें।

 

सिगार- अंत विगलनकेले के अग्रभाग से दाग शुरू होकर धीरे-धीरे वह जली हुई सिंगार का आकार ग्रहण करता हैं।बॉविस्टिन 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
पनामापत्ता पीले रंग का होता है। और धीरे-धीरे यह बादामी रंग का हो जाता है और शीर्ष टूटकर झूलता रहता है। अन्ततः पूरा पौधा मर जाता है।ड्वार्फ कैवेन्डिश जाति इस रोग के प्रति सहनशील है। उचित मात्रा में खाद का उपयोग करें। निराई-गुड़ाई के समय को कोई हानि नहीं पहुंचनी चाहिए। 2 ग्राम बॉविस्टिन एक लिटर जल में घोलकर पौधे को इस घोल से तर करें।

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खेत में पौधे की रोपाई:-

क. खेत की तैयारी:-

2-3 बार जुताई करके जमीन की तैयारी करें। 5 फुट की दूरी पर नाली बनाकर दो नाली के बीच X में 6-8 इंच ऊँचा मेड़ तैयार करें। इस बांध में 60 से. मी. X 45 से.मी. (2 फुट x 2 फुट x 2 फुट x 6 इंच) माप का गड्ढा कर लें।

ख. गड्ढे में मिट्टी की तैयारी और पौध की रोपाई:-

गड्ढे की मिट्टी के 1 साथ 15-20 कि.ग्रा. कंपोस्ट मिलाकर गड्ढे में भर दें और उसी अनुपात में जल से सिंचाई करें। मिट्टी और खाद कुछ देर में बैठ जाएगी। पॉलीबैग को सावधानी पूर्वक काटकर अलग कर पौधे को गड्ढे के मध्य भाग में लगा दें। दो बातों का ध्यान रखें:-

  1. पॉलीथीन काटते समय पौधे की जड़ में लगी हुई मिट्टी अलग नहीं होनी चाहिए।
  2. पॉलीबैग में जितनी ऊँचाई तक मिट्टी पौधे से लगी हुई हो, उतनी ऊँचाई तक ही गड़े में पौधे की रोपाई करें।

पौधा रोपाई के एक सप्ताह बाद 20 ग्राम फ्यूराडॉन 3 जी या 12 ग्राम थॉयमेट 10 जी पौधे से कुछ दूरी पर उपयोग कर मिट्टी के साथ अच्छी तरह मिला दें। पौधा-रोपाई के 2 सप्ताह के पश्चात् 1 ग्राम एमिशन 6 प्रति X लीटर पानी के घोल से जड़ को भिगों दें। साथ में ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन प्रति 10 लीटर जल में घोलकर छिड़काव करना उपयुक्त होगा। पौधे की रोपाई के बाद उसको अच्छी तरह सिंचित करें। इसकी 5-10 दिन की अवधि पर आवश्यकतानुसार जल से सिंचाई करें।

फसल की सुरक्षा की व्यवस्था:-

उत्तक संबंधित केला रोग के प्रति: सहनशील होता है। लेकिन केला बागान में मिट्टी, जल और प्रतिकूल जलवायु के कारण रोग का संक्रमण असंभव नहीं है। रोग के अलावा विभिन्न प्रकार के कीट पतंगों के आक्रमण से केले की खेती को बहुत क्षति होती है। अतः लाभकारी फसल के लिए इसके निवारण उपाय जरूरी है।

  • मिट्टी में 2-3 इंच की गहराई पर खाद का उपयोग करें।
  • पौधे की वृद्धि के साथ जड़ से खाद के उपयोग की दूरी क्रमश: बढ़ाएं।

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केले की खेती में ध्यान देने योग्य बातें:-

  1. जमीन को खरतपवार से मुक्त रखें।
  2. घौद आने से पहले मुख्य पौधे के अलावा सब पौधों को हाटा दें।
  3. घौद आने के आद मुख्य पौधे के अतिरिक्त एक छोटा पौधा रख लें
  4. अनुचित मात्रा में कीटनाशियों और फफूँदनाशियों का उपयोग कदापि न करें।
  5. कीटनाशियों का छिड़काव सुबह या शाम के समय ही करें।
  6. घौद आने के 7-10 दिन में पूरा केला निकलने के पश्चात फूल को काटकर हटा दें। इसे काटने में देरी होने से घौद की वृद्धि बाधित होती है।
  7. अत्यधिक ताप के समय घौत को पत्ती से ढककर रखें।
  8. तेज हवा से पौधे और घौद को बचाने के लिए बांस का सहारा देना उपयोगी है।

जलवायु, मिट्टी या खेती करने की विधि में परिवर्तन से केले के फलने की क्षमता में परिवर्तन हो सकता है। ऊतक संवर्ध में ज्यादा से ज्यादा 15 प्रतिशत तक जलवायु, मिट्टी या खेती करने की विधि के अनुसार उत्पन्न क्षमता में भिन्नता पाई जा सकती है।

प्रस्तुति:-

जगनारायण, (कृषि और ग्रामीण पत्रकार)

श्री विश्वनाथ मंदिर काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी (यूपी)

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Vijay Gaderi

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