गेहूँ की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक - innovativefarmers.in
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गेहूँ की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

गेहूँ
Written by Bheru Lal Gaderi

गेंहूँ की अधिकतम पैदावार के लिये बलुई दोमट, उर्वरा व जलधारण क्षमतायुक्त मिट्टी वाले सिंचित क्षेत्र उपयुक्त हैं। इसकी खेती अधिकांशतः सिंचित क्षेत्रों में की जाती है। लेकिन भारी चिकनी मिट्टी व पर्याप्त जलधारण क्षमता वाली भूमि में असिंचित परिस्थितियों में भी बोया जा सकता है। गेहूँ की अधिक उपज देने वाली बौनी किस्मों व अन्य उन्नत किस्मों से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिये उन्नत विधियों का प्रयोग करें।

गेहू की अधिक उपज लेने के लिए दाने बनते समय औसत तापमान 175 से 20.5 के बीच में रहना चाहिए, अगर इसमें 1°c की वृद्धि होती है। दाने बनने को स्थिति औसतन चार दिन पहले ही आ जाती है जिससे उपज में अत्यधिक कमी होती है। अतः बदलते मौसम में बुवाई समय के साथ-साथ तापमान का भी ध्यान रखें।

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उन्नत किस्में:-

डब्ल्यू एच 147 – (1977):-

60-75 सेन्टीमीटर ऊँची, सफेद बालियों वाली यह किस्म सामान्य बुवाई स्थिति व सिंचित क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। यह किस्म 125–130 दिन में पक जाती हैं तथा इसका दाना अम्बर व 1000 दानों का वजन 42-54 ग्राम होता है। इसकी चपाती अच्छी बनने के कारण यह उपभोक्ताओं द्वारा पसन्द की जाती है। इसके दाने बड़े आकार के सख्त व शरबती तथा औसत उपज 40-50 क्विंटल प्रति हैक्टर है।

लोक-1 (1981):-

द्विजीन बौनी, 85-90 सेन्टीमीटर ऊँची इस किस्म के दाने सख्त व सुनहरी आभा वाले होते हैं तथा 1000 दानों का वजन 45-55 ग्राम होता है। जल्दी पकने के कारण इसकी उपज सामान्य व पिछेती, दोनों बुवाई की परिस्थितियों में अच्छी होती है। इस किस्म के दाने काला धब्बा रोग से अधिक प्रभावित होते हैं। यह किस्म 100-110 दिनों में पककर 40-45 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है।

राज. 3077 1990):-

यह बौनी 115 – 118 सेन्टीमीटर ऊँची अधिक •फुटान वाली रोली रोधक किस्म है। यह किस्म 120-125 दिन में पक जाती हैं। मजबूत व मोटे तने होने के कारण यह किस्म आड़ी नहीं गिरती है। दाने शरबती आभायुक्त, सख्त व मध्यम आकार के होते हैं व 1000 दानों का भार 35-38 ग्राम है।

जी. डब्ल्यू. 190 (1993):-

सिंचित परिस्थितियों में उच्च खाद की मात्रा के साथ, काला धब्बा रोग प्रतिरोधी यह किस्म समय पर व अगेती बुवाई हेतु उपयुक्त है। रोली अवरोधी इस किस्म की ऊँचाई 95-100 सेन्टीमीटर, पकाव अवधि 115-120 दिन एवं 1000 दानों का वजन 40-43 ग्राम होता है। औसतन 45-55 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है।

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राज. 3765 (1996):-

द्विजीन बौनी, अधिक फुटान वाली, रोली प्रतिरोधक क्षमता युक्त यह किस्म पिछेती बुवाई ( दिसम्बर के तीसरे सप्ताह तक) के लिये उपयुक्त है। इसका तना मजबूत होने के कारण यह आड़ी नहीं गिरती है। पत्तियां हरे रंग की मोमरहित होती है। दाने शरबती चमकीले आभा लिये सख्त व बड़े आकार के होते हैं। 110-120 दिन की पकाव अवधि वाली यह किस्म 85-95 सेन्टीमीटर ऊँची होती है। बालियां पकने पर सफेद व दाने सुनहरी आभायुक्त मोटे होते हैं। उपज क्षमता 40-50 क्विंटल प्रति हैक्टर एवं 1000 दानों का वजन 35 से 40 ग्राम है। इसमें अधिक गर्मी सहने तथा सभी प्रकार के जैविक व अजैविक अवरोधों को सहने की क्षमता है।

जी. डब्ल्यू.173:-

सिंचित अवस्था में देरी से बुवाई हेतु उपयुक्त, 95-100 दिन में पकने वाली इस किस्म के पौधे की ऊँचाई 73-77 सेमी. होती हैं। काली और भूरी रोली प्रतिरोधक इस किस्म के 1000 दानों का वजन 35-38 ग्राम तथा औसत उपज 45 क्वि. प्रति हैक्टर हैं।

जी.डब्ल्यू. 273 (1998):-

द्विजीन बौनी 85-100 सेन्टीमीटर ऊँची इस किस्म की पकाव अवधि 110-120 दिन, 1000 दानों का वजन 40-45 ग्राम एवं औसत उपज 40 से 50 क्विंटल प्रति हैक्टर है। काली एवं भूरी रोली अवरोधक यह किस्म सामान्य व देरी से बुवाई के लिये उपयुक्त है।

राज. 3777 (1998) :-

यह द्विजीनी बौनी किस्म है जो कि पिछेती बुवाई हेतु उपयुक्त पायी गयी है। इसकी लम्बाई 95-100 से.मी., पकने की अवधि 95-100 दिन, 1000 दानों का भार 35-38 ग्राम तथा औसत उपज 40-45 क्विं. प्रति हैक्टर होती है।

जी.डब्ल्यू 322 (2001) :-

यह सिंचित परिस्थितियों में सामान्य बुवाई हेतु रोग प्रतिरोधी नवीनतम किस्म है। इसकी ऊँचाई 95-100 से.मी. पकाव अवधि 120-125 दिन व 1000 दानों का वजन 35-38 ग्राम है। औसतन सामान्य बुवाई पर 50-55 क्विं. प्रति हैक्टर उपज देती है।

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राज 4037 (2005):-

115-120 दिन में पकने वाली यह एक द्विजीनी बौनी, अधिक फुटान, रोली प्रतिरोधक क्षमता व अधिक तापक्रम सहनशील सामान्य समय पर बोई जाने वाली किस्म है, जो कि पर्याप्त सिंचाई एवं उर्वरता वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। इसके पौधों की ऊँचाई कम (80-85 से.मी.) होने के कारण गिरने की संभावना कम रहती है। सामान्य बुवाई में इसका उत्पादन 55-60 क्विंटल प्रति हैक्टर है। इसका दाना सुनहरा सख्त व गोलाईयुक्त है, जिसके 1000 दानों का भार 35-40 ग्राम है।

राज. 4083 (2007) :-

गेहूं की यह किस्म 80-85 सेमी. ऊँची, अधिक फुटान वाली रोली रोधी किस्म हैं। पौधों के तने मजबूत व मोटे होने के कारण आडी नही गिरती हैं। दाने शरबती आभायुक्त, मध्यम आकार के होते हैं। सिंचित क्षेत्रों में पिछेती बुवाई के लिये उपयुक्त हैं। इसकी औसत उपज पिछँती बुवाई में 35-40 क्वि. प्रति हैक्टर होती हैं। इसके 1000 दानों का वजन 39-42 ग्राम होता हैं। यह किस्म 115-118 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं।

एच.आई. 1544 (2008):-

यह किस्म 95-100 सेमी. ऊँची, सामान्य बुवाई एंव सिंचित क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हैं। इसका दाना अम्बर व 1000 दानें का वजन 42-45 ग्राम होता हैं। यह किस्म चपाती बनाने में उपयुक्त, 115-120 दिन में पक कर 55-58 क्वि. प्रति हैक्टर उपज देती हैं। यह किस्म तना तथा पत्ती रस्ट रोग के प्रति प्रतिरोधकता दर्शाती है।

राज. 4120 (2009) :-

गेहूँ की यह किस्म 79-94 सेमी. ऊँचाई अधिक, फुटान वाली व रोली रोधक विशेष रूप से यूजी 99 बाली रोली रोधक क्षमता रखने वाली नई किस्में हैं। यह सामान्य बुवाई व सिंचित क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हैं। मजबूत तने के कारण आड़ी नही गिरती हैं। इसके पकने का समय 117-124 दिन हैं तथा उपज 48-58 क्वि. प्रति हैक्टर तक होती हैं। इसके दाने शरबती आभायुक्त, सुडोल व मध्यम आकार के होते हैं। 1000 दानों का वजन 38-41 ग्राम होता हैं।

राज 4079 (2011) :-

गेहूं की यह किस्म 75 से 80 सेन्टीमीटर ऊँची, अधिक फुटान वाली, गर्म तापक्रम सहनशीलता रखने वाली एवं रोली रोधक होती है। यह सामान्य बुवाई व सिंचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त है। मजबूत तने के कारण यह किस्म आड़ी नहीं गिरती है। इसके पकने का समय 115 से 120 दिन है। इसकी उपज 47 से 50 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। इसके दाने शरबती आभायुक्त, शख्त व मध्यम आकार वाले तथा 1000 दानों का वजन 42 से 46 ग्राम तक होता है। यह राजस्थान की गर्म जलवायु को सहन करने की क्षमता रखती है और अधिक उपज देती है।

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काठा गेहूँ:-

राज. 1555 (1990) :-

सामान्य समय पर बोई जाने वाली काठिया गेहूं की यह किस्म पर्याप्त सिंचाई एवं उर्वरता वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त पाई गई है। यह द्विजीन बौनी किस्म कम सिंचाई में भी अधिक उपज देती है। इसकी औसत उपज 40-50 क्विंटल प्रति हैक्टर तथा 1000 दानों का वजन 40-60 ग्राम है।

एच. आई. 8713 (2012):-

यह किस्म सामान्य बुवाई हेतु काठिया गेहूँ की रोली प्रतिरोधी किस्म है। यह पोषण युक्त किस्म 130-135 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसका दाना सख्त एवं गेहूँसा रंग का होता है। पौधो की ऊँचाई 90-95 सेमी. होती है तथा 1000 दानो का भार 48-52 ग्राम होता है। इस किस्म की औसत उपज 55-58 क्विंटल प्रति हैक्टर है।

एच. आई. 8737 (2015) :-

यह किस्म सामान्य बुवाई हेतु कठिया गेहूँ की रोली प्रतिरोधी किस्म है। यह पोषण युक्त किस्म 130-135 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसका दाना सख्त एवं गेहूँसा रंग होता है। पौधों की ऊँचाई 95-98 से.मी. होती है तथा 1000 दानों का भार 50-54 ग्राम होता है। इस किस्म की औसत उपज 55-58 क्वि. / हे है। यह किस्म पास्ता बनाने के लिए उपयुक्त है।

मालव शक्ति एच.आई. 8498 (1999) :-

सामान्य बुवाई हेतु काठिया गेहूं की रोली प्रतिरोधी, पर्याप्त सिंचाई एवं उर्वरता वाले क्षेत्रों हेतु उपयुक्त है। इसकी पकाव अवधि 110-120 दिन एवं सामान्य बुवाई में यह 50-60 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है, लेकिन पिछेती बुवाई में इसकी उपज 35 से 40 क्विंटल होती है। इसके 1000 दानों का वजन 50 ग्राम है। एम.पी.ओ. 1215 : काठिया गेहूँ की यह किस्म समय पर बुवाई व सिंचित क्षेत्र के लिए अनुमोदित है। इस किस्म की औसत उपज 50-55 क्विंटल प्रति हैक्टर, 1000 दानों का वजन 50.55 ग्राम तथा पौधे की ऊँचाई 92 से 100 सेंटीमीटर होती है। यह किस्म 125 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है।

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एच. आई. 8759 (2017):-

यह किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के क्षेत्रीय केन्द्र इंदौर, मध्यप्रदेश से HI8663/HI8498 के संकर से विकसित की गयी है तथा इसका दूसरा नाम पूसा तेजस है। काि गेहूँ की यह किस्म समय पर बुवाई सिंचित व उच्च उर्वरता वाले क्षेत्र लिए अनुमोदित है। इस किस्म की औसत उपज 55-60 क्विंटल प्रति हैक्टेयर 1000 दानों का वजन 50-55 ग्राम, पौधे की ऊँचाई 80-85 से.मी हैं। बालियों 70-80 दिन बुवाई उपरान्त निकलती हैं तथा परिपक्वता 115-120 दिन में होती हैं। इस किस्म में प्रोटीन 12 प्रतिशत लौह तत्व जिंक की मात्रा अधिक होती है यह द्वि प्रायोजनीय किस्म चपाती और पास्ता दोनों बनाने के लिए उपयुक्त है।

जैविक गेहूँ (Triticum durum L.)

एच. आई. 8713:-

काठिया गेहूँ की यह किस्म जैविक खेती के लिए समय पर बुवाई तथा सिंचित वाले क्षेत्र के लिए अनुमोदित है। जैविक खेती के तहत इस किस्म की औसत उपज 45-50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। यह द्वि प्रायोजनीय किस्म चपाती और पास्ता दोनों बनाने के लिए उपयुक्त है।

कम सिंचाई एवं असिंचित क्षेत्र:-

एम. पी. 3288 (2012) :-

सामान्य बुवाई अवस्था (मध्य नवम्बर) कम सिंचाई उपलब्धता (1-2) समय पर बुवाई हेतु उपयुक्त किस्म हैं एवं कम उर्वरकता वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह एक बोनी किस्म है जिसकी ऊँचाई 80-85 सेमी तथा पकने की अवधि 115-120 दिन होती है। इसका दाना सख्त तथा गेहुआ होता है और 1000 दानों का भार 38-42 ग्राम होता है। दो सिंचाई अवस्था में इसकी औसत उपज 30-35 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है।

एच. आई. 1531 (2006) :-

सामान्य बुवाई अवस्था (मध्य नवम्बर तक) कम सिंचाई उपलब्धता (1-2) एवं कम उर्वरकता वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह एक बोनी किस्म है जिसकी ऊँचाई 90-95 सेमी है तथा पकने की अवधि 110-120 दिन है। इसका दाना सख्त तथा गेहंआ होता है और 1000 दानों का भार 36 से 42 ग्राम होता है। दो सिंचाई अवस्था में इसकी औसत उपज 25-30 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त होती है।

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एच. आई. 1500 (2003) :-

काठिया गेहूँ की यक एक जल्दी पकने वाली किस्म है। किस्म बारानी एवं कम सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है। यह किस्म बारानी क्षेत्रों में 10-15 क्विंटल प्रति हैक्टर एवं सीमित सिंचाई क्षेत्रों में 20-25 क्विंटल प्रति हैक्टर की उपज देती है। एसके पौधों की ऊँचाई मध्यम तथा 1000 दानों का वजन 35-40 ग्राम होता है।

एच.आई. 8627 (2005) :-

काठिया गेहूँ की अगेती से सामान्य बुवाई ( अक्टूबर अन्तिम सप्ताह से मध्य नवम्बर), रोली प्रतिरोधी कम सिंचाई (1-2) व कम उर्वरता वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके पकने की अवधि 125-130 दिन, पौधों की ऊँचाई 95-100 से.मी. है व कम सिंचाई परिस्थिति में उपज 25-30 क्विंटल प्रति हैक्टर है। इसका दाना गेहुंआ एवं सख्त होता है तथा 1000 दानों का भार 40-45 ग्राम होता है। यह किस्म दलिया, सूजी, बाटी बनाने के लिए उपयुक्त है।

के. आर. एल. 1-4 (1999):-

यह किस्म क्षारीय व लवणीय क्षेत्रों हेतु उपयुक्त 95 सेन्टीमीटर ऊँची, 120 दिन में पककर 27 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है। 1000 दानों का भार 32-35 ग्राम तक होता है।

एच.डी. 2932 :-

किस्म सन 2008 में जारी की गई है जो कि पिछेती बुवाई हेतु उपयुक्त है। इसकी लम्बाई 80-90 से.मी., पकने की अवधि 105 – 110 दिन, 1000 दानों का भार 35-46 ग्राम तथा औसत उपज 40-45 क्विंटल प्रति हैक्टर है।

केआरएल 19 (2000) :-

केआरएल 19 केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित नवीनतम प्रजाति है। यह प्रजाति पीडीडब्ल्यू 255 एवं केआरएल 1-4 के संकरण क्षरा वंशावली वरण प्रक्रिया द्वारा चयनित की गई थी। यह प्रजाति 9.3 पीएच मान तक की क्षारीयता एवं डे.सी. प्रति मीटर की लवणता को सहन कर सकती है। इसके अतिरिक्त यह प्रजाति उन भूमियों में भी अच्छी उपज दे सकती है, जहां भूमि तो अच्छी है, परन्तु भूजल खारा डे..सी. 15-20 डे.सी. प्रति मीटर अथवा आर. एस. सी. 12-14 मिली तुल्यांक प्रति लीटर) होता है। इस किस्म के दाने गेहुए रंग के एवं मध्यम आकार के होते हैं।

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के.आर.एल.-19 में प्रोटीन की मात्रा 12 प्रतिशत, हैक्टोलीटर भार 77.4 किलोग्राम एवं अवसादन (सेडिमेंटेशन) माप 47.4 मिली. होता है। 70-85 सेंटीमीटर ऊँची इस किस्म की पकाव अवधि 122-127 दिन, 1000 दानों का वजन 36 ग्राम होता है। यह प्रजाति सामान्य मृदा में भी उपज (45-52 क्विंटल प्रति हैक्टर) देने में सक्षम है। लवण ग्रस्त मृदाओं में इसकी उपज 25 से 35 क्विंटल प्रति हैक्टर तक हो सकती है। यह प्रजाति मुख्य रूप से प्रदेश की लवणीय एवं क्षारीय भूमियों में उगाई जाती है।

के आरएल 210 (2012):-

यह किस्म केन्द्रीय मृदा लव अनुसंधान संस्थान करनाल द्वारा 2012 में विकसित किस्म है। पौधों ऊँचाई 99 सेमी. होती है। यह किस्म पीले एवं भूर गुरुआ अनावृत क पताका कण्डवा, करनाल बन्ट बीमारी के प्रति सहनशील होती है। फसल पकने पर आड़े नहीं पड़ती एवं बालियों से दाने नहीं बिखरते। क अवधि 143 दिन व उत्पादन क्षमता 55 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। इस किस्म की उत्पादन क्षमता पी.एच. 9.3 तथा ई.सी. 6 डी.सी. तक की मिट्टी में 30-35 क्विंटल प्रति हैक्टर ।

डी.बी. डब्ल्यू 110 (2015):-

यह किस्म चपाती बनाने के लिए एवं समय पर बुवाई के लिए उपयुक्त है जो कि कम सिंचाई (1 और 2) में भी 37 से 45 क्विंटल / हेक्टेयर उत्पादन देती है। यह किस्म 115-120 दिनां में पककर तैयार हो जाती है तथा 1000 दानों का भार 35-38 ग्राम होता है। फसल पद्धति: इस संभाग के लिए मक्का + उड़त (22) गेहूँ की फसल पद्धति अनुमोदित की गई है जिससे अधिकतम शुद्ध लाभ प्राप्त हुआ।

खेत की तैयारी एवं भूमि उपचार:-

गेहूँ के लिए अच्छी जल निकास वाली क्षार रहित भूमि उपयुक्त रहती है। खेत की अच्छी तैयारी करने के पश्चात दीमक एवं भूमि में रहने वाले अन्य कीड़ों की रोकथाम के लिए क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो प्रति हैक्टर की दर से बीज बोने से पहले अन्तिम जुताई के समय खेत में मिलावें।

गेहूँ में जड़ गलन हेतु बीज एवं भूमि उपचार:-

जैविक गेंहू के लिए बीजोपचार- गेंहू में पद गलन या जड़ गलन प्रभावित क्षेत्रों में रोग की रोकथाम के लिए बीज को कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत + थायरस 37.5 प्रतिशत (75 डब्ल्यू पी) की दो प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करें।

जैविक गेहू के लिए भूमि उपचार बीमारियों से रोकथाम के लिए बुवाई से पूर्व 125 किलो ट्राइकोडर्मा हरजेनियम को 25 किग्रा आर्द्रतायुक्त गोबर की खाद में अच्छी तरह मिलाकर 10-15 दिन के लिए छाया में रख दें। इस मिश्रण को बुवाई के समय प्रति बीघा की दर से पलेवा करते समय मिट्टी में मिला दें।

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गेहूं की उन्नत किस्में बीज दर एवं बुवाई:-

बुवाई की स्थिति सिंचित / असिंचित

किस्मबुवाई का उचित समयबीज दर कि.ग्रा.

प्रति हैक्टर

कतार से कतार की दूरी (सेन्टीमीटर)

सामान्य बुवाई सिंचित

 

डब्ल्यूएच 147 राज3077

जीडब्ल्यू 190

जी डब्ल्यू 273

एच.आई.- 1544

राज. 4037

एचआई 8498

लोक-1

राज. 3765

नवम्बर के प्रथम सप्ताह से तीसरे सप्ताह तक जीडब्ल्यू 322 (20.5° 21.5° से.)

125

 

 

 

 

 

150

 

20-23

देर से बुवाई सिंचितलोक 1

डब्ल्यूएच 147

राज 3765

राज 3777

एचआई 8498

नवंबर के सप्ताह से दिसम्बर के दूसरे सप्ताह तक

150

20-23

सामान्य बुवाई

कम सिंचित / असिंचित

HI1500

HI1531

अक्टूबर के मध्य से मध्य नवम्बर तक

125

20-23

पेटा काश्त

 

लोक 1

 

मध्य नवम्बर या तालाब खाली होने तक

125

 

20-23

क्षारीय एवं लवणीय क्षेत्रके आर.एल. 1-4 व

के आर.एल. 19

के आर. एल. 210

मध्य नवम्बर

 

  

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बीजोपचार:-

दीमक नियन्त्रण हेतु 600 मिलीलीटर क्लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी. या इथियोन 50 ई.सी. 500 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोलकर 100 किलो बीजों पर समान रूप से छिड़ककर उपचारित करें एवं छाया में सुखाने के बाद बुवाई करें। घोल एक सार छिड़कने के लिये छिड़काव यंत्र का प्रयोग भी कर सकते हैं। बीजोपचार के दो घण्टे के अन्दर बुवाई करें।

बीज जनित रोगों से बचाव हेतु दो ग्राम थाइरम या ढाई ग्राम मैन्कोजेब प्रति किलो बीज की दर से बीज को उपचारित कर बुवाई के काम में लेवें। अनावृत कण्डवा एवं पात कण्डवा का प्रकोप हो वहां नियंत्रण हेतु कार्बोक्सीन 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज को उपचारित करें ।

लवणीय मिट्टी व खारे पानी वाले क्षेत्रों में बीज को सोडियम सल्फेट के 3 प्रतिशत घोल (1.5 कि.ग्रा. सोडियम सल्फेट का 50 लीटर पानी में घोल) में 24 घन्टे डुबोना चाहिये । इसके बाद बीज से लवण की परत हटाने के लिए बीज को सादे पानी में अच्छी तरह धोकर सुखा लेवें। बीजोपचार करने से पूर्व खारी मिट्टी व खारे पानी का विस्तृत परीक्षण करावें और सिफारिश के अनुसार खाद व अन्य रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करें।

भूमि की विद्युत चालकता चार से अधिक एवं पी. एच. 8.5 से कम होने पर ही यह उपचार करें। ईयर कोकल व टुण्डु रोग से बचाव हेतु रोगग्रस्त बीज को 20 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोकर नीचे बचे स्वस्थ बीज को अलग छांट कर साफ पानी में धोयें, जिससे नमक की परत हट जाये, इसके बाद सुखाकर बोने के काम में लेवें। ऊपर तैरते हल्के एवं रोग ग्रसित बीजों को निकाल कर नष्ट करें। जिन खेतों में इस रोग का अधिक प्रकोप हो उनमें अगले कुछ वर्षों तक गेहूं नहीं बोयें।

अन्त में एजोटोबेक्टर एवं पी.एस.बी. जीवाणु कल्चर से बीज को उपचारित कर बोयें। उपचारित करके बोने से प्रति हैक्टर 20 से 30 कि.ग्रा. नत्रजन 20 से 30 कि.ग्रा. फॉसफोरस प्रति हैक्टर की बचत होती है।

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जैविक खाद एवं उर्वरक प्रयोग:-

अच्छी सड़ी हुई 8-10 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टर बुवाई के एक माह पहले हर तीन साल में एक बार अवश्य देवें। मिट्टी परीक्षण द्वारा ज्ञात की गई भूमि में उपलब्ध पौषक तत्वों की मात्रा के आधार पर उर्वरक प्रयोग करें। इसके अभाव में सिंचित क्षेत्र में सामान्य बुवाई के लिए 80 किलो नत्रजन एवं 35 किलो फॉसफोरस प्रति हैक्टर देवें। देर से बुवाई की स्थिति में 90 किलो नत्रजन एवं 35 किलो फॉसफोरस प्रति हैक्टर प्रयोग करें। सिंचित गेहूं में नत्रजनीय उर्वरक की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस व पोटाश युक्त उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय ओरने से ऊर कर देवें। भारी भूमि में नत्रजनीय उर्वरक की शेष आधी 50 प्रतिशत मात्रा पहली सिंचाई के समय देनी चाहिये। हल्की भूमि वाले खेतों में पहली व दूसरी सिंचाई के साथ नत्रजन दो समान मात्रा में देवें।

मक्का-गेहूँ फसल चक्र में मक्का की फसल को 90 किग्रा. नत्रजन, 35 किग्रा. फास्फोरस एवं 30 किग्रा. पोटाश तथा साथ में 25 किग्रा. जिंक सल्फेट का प्रयोग व गेहूँ में 120 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा फास्फोरस एवं 30 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर सिंचित क्षेत्र में व असिंचित क्षेत्र एवं पेटा काश्त में 30 किग्रा. नत्रजन एवं 15 किग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टेयर बुवाई के समय ऊर कर देवें। पोटाश खाद भूमि परीक्षण के अनुसार देवें ।

जस्ते की कमी के कारण पौधों की वृद्धि रूक जाती है। पत्तियां बीच की शिरा के पास समानान्तर पीली पड़ जाती है। शिरा हरी रहती है। ज्यादा प्रकोप में पत्तियों पर मटमैली धारियां तथा तेलिया धब्बे पड़ जाते हैं।

ऐसे पौधे छोटे छोटे सीमित क्षेत्रों में पाये जाते हैं। यह कमी तीसरी व चौथी पत्ती की अवस्था से शुरू होती है। नत्रजन देने के बाद भी ऐसे क्षेत्रों में हरापन नहीं आता है। ऐसे क्षेत्रों में बुवाई से पूर्व प्रति हैक्टर 25 किलो जिंक सल्फेट या 10 किलो चिलेटेड जिंक देवें। जहां गेहूं बोने के बाद जिंक की कमी महसूस हो वहां 5 किलो जिन्क सल्फेट + 250 किग्रा बुझे हुये चुने को 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हैक्टर छिड़के एवं आवश्यकतानुसार छिड़काव दोहरावें।

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सिंचाई:-

सामान्यतः गेहूँ की फसल को फसल स्थिति तथा भूमि में नमी की उपलब्धता को देखते हुए भारी मिट्टी में 4-6 सिंचाईयों और हल्की मिट्टी में 6-8 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। प्रथम सिंचाई फसल बोने के 20-25 दिन पर शीर्ष जड़ जमने के समय करें। आगे की सिंचाईयां मुख्यतः फुटान की अवस्था, बालियां निकलते समय और दूधिया अवस्था में अवश्य करें।

निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण:-

प्रथम सिंचाई के 10-12 दिन के अन्दर कम से कम एक बार निराई गुड़ाई कर खरपतवार अवश्य निकाल दें एवं बाद में भी खरपतवार निकालते रहें। चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का नष्ट करने के लिये बौनी किस्मों में बुवाई के 30 से 35 दिन व अन्य किस्मों में 40-50 दिन के बीच 500 ग्राम 2-4, डी एस्टर साल्ट या 750 ग्राम 2-4 डी अमाइन साल्ट सक्रिय तत्व नींदानाशी रसायन प्रति हैक्टर की दर से 500 से 700 लिटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

  • गेंहू में चौडी पत्ती वाले खरपतवार की रोकथाम के लिए मेटसल्फयूरॉन मिथाईल (20 डब्ल्यू.पी.) 4 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर का सरफेक्टेन्ट (500 मिली प्रति हैं.) के साथ बुवाई के 30-35 दिन अन्दर छिडकाव करें।
  • गुल्ली डण्डा व जंगली जई खरपतवार का प्रकोप जिन खेतों में गत वर्षों में अधिक रहा हो उनमें गेहूं की बुवाई के 30-35 दिन बाद आइसोप्रोट्यूरान नींदनाशी, हल्की मिट्टी हेतु75 कि.ग्रा. तथा भारी मिट्टी हेतु 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व का पानी में घोल बनाकर एक साथ छिड़काव करें या मेटाक्सिरॉन 1.25 किग्रा या मैंथाबेन्जाथयोजूरॉन 1 किग्रा नींदनाशी सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर का 500-700 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें।
  • गेंहू में घास कुल वाले खरपतवार का नियन्त्रण करने के लिए सल्फोसल्फ्यूरान (75 डब्ल्यू.पी.) नामक खरपतवारनाशी का 25 ग्राम प्रति हैक्टर सक्रिय तत्व की दर से सरफेक्टेन्ट के साथ 30-35 दिन बाद छिडकाव करे।

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  • गेंहू की फसल में खरपतवार नियन्त्रण के लिए क्लोनिडाफॉप 15 प्रतिशत + मेटासल्फ्यूरॉन 1 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. का 52 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर की दर से बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़काव करें।
  • गेहूँ की फसल में चौड़ी एवं घास को कुल दोनों प्रकार के खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण के लिये मीजोसल्फ्यूरॉन मिथाईल 3 प्रतिशत (12 ग्राम / है) + आइडोसल्फ्यूरॉन मिथाईल6 प्रतिशत डब्ल्यू जी (24 ग्रा./ है.) बुवाई के 25-30 दिन बाद या क्लोडिनाफॉप 15 प्रतिशत (60 ग्रा./है.) + मेटसल्फ्यूरॉन मिथाईल 1.0 प्रतिशत डब्ल्यू जी (4 ग्रा./ है.) बुवाई के 30-40 दिन बाद घोल का छिड़काव करें।
  • ध्यान रखें कहीं भी दोहरा छिड़काव न होने पाये। इन खरपतवारों के मामूली प्रकोप वाले खेतों में जब खरपतवार बड़े हो जायें तब इनको बीज बनने से पहले खेत से निकाल कर मवेशियों को खिला दें।

पौध संरक्षण:-

दीमक:-

खड़ी फसल में दीमक की रोकथाम हेतु क्लोरोपायरीफॉस 20 ई. सी. चार लीटर प्रति हैक्टर सिंचाई के साथ देवें ।

शूट फ्लाई:-

इससे बचने के लिये मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर तक बुवाई करें। शूट फ्लाई का प्रकोप होने पर मोनोक्रोटोफॉस 36 एस एल 500 मिलीलीटर का अंकुरण के तीन चार दिन के अन्दर छिड़काव करें।

मोयला व तेला:-

मोयला या तेला दिखाई देने पर डायमिथोएट 30 ई सी या मिथाइल डिमेटोन 25 ई.सी. 1 लीटर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार छिड़काव 15 दिन बाद दोहराएं।

सैन्य कीट, चने वाली लट, पायरिला, फ्लो बीटल, फड़का एवं फील्ड क्रिकेट्स: इनकी रोकथाम हेतु मिथाइल पैराथियॉन 2 प्रतिशत या मैलाधिगॉन 5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो प्रति हैक्टर भुरकें।

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झुलसा एंव पत्ती धब्बा रोग:-

फसल को झुलसा एंव पत्ती धब्बा रोग से बचाने के लिए जनवरी के प्रथम सप्ताह से 15 दिन के अन्तर पर जाइनेब 2.5 किलो या मेकोजेब 2 किलो या कोपर आक्सीक्लोराइड 3 किलो प्रति हैक्टर का घोल बनाकर 3-4 बार छिडकाव करें।

रोली रोग:-

रोग नियन्त्रण हेतु रोलीरोधक किस्मों का प्रयोग करें। जहां दूसरी किस्मो का प्रयोग किया हैं, वहां सुरक्षात्मक उपाय के रूप में 25 किलो गंधक चूर्ण का प्रति हैक्टर की दर से 15 दिन के अन्तर पर 2-3 बार सुबह या शाम के समय भूरकाव करें या 2 किलो मेन्कोजेब या 2 किलो घुलनशील गंधक का प्रति हैक्टर की दर से घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए।

अनावृत कण्डवा एवं पत्ती कण्डवा रोग:-

रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला दें ताकि रोग का और अधिक फैलाव न हो। रोग से बचाव हेतु मई-जून में बीज का सौर उपचार करें या बुवाई से पूर्व कार्बोक्सीन 5 ग्राम अथव कार्बन्डाजिम 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें ।

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मोल्या रोग:-

यह एक सूत्रकृमि रोग है जिसमें रोगग्रस्त पौधे छोटे पीले पड़ जाते है और जड़ों की गाठें बन जाती है। रोग की रोकथाम हेतु एक व दो साल तक गेहूं की फसल के स्थान पर जौ की मोल्या रोग रोधी किस्म बाद फसल चक्र में चना, सरसों, प्याज, मैथी, आलू, गाजर बायें। रोग की रोक हेतु मई जून की कड़ी गर्मी में एक पखवाड़े के अन्तर से खेतों में दो बार गहरी जुताई करें।

जिन खेतों का अधिक प्रकोप हो वहां खेतों में बुवाई से पहले कार्बोफ्यूरोन 3 प्रतिशत कण 45 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से 90 कि.ग्रा. यूनिव के साथ भूमि में ऊर कर बुवाई करें। यदि बुवाई से पूर्व यह उपचार नहीं किय जा सके तो शीर्ष जड़ जमने के समय पहली सिंचाई के साथ यह रसायन देवे।

ध्यान रखें:-

  • गेहूँ की अधिकतम उपज हेतु बुवाई के समय वायु का औसत तापमान वा डिग्री सेल्सियस उपयुक्त होता है। गेहूँ की प्रजनन अवधि (बालिक निकलने से शारीरिक परिपक्वता अवस्था के मध्य) में औसत वायु तापमान1 से 20.9 डिग्री सेल्सियस अधिक पैदावार के लिए उपयुक्त होता है। प्रजनन अवधि के दौरान 1 डिग्री सेल्सियस वायु तापमान वृद्धि से गेहूँ क प्रजनन अवधि में 3 दिनों एवं उपज में 553 किलोग्राम प्रति है की कर्म पाई गई है।
  • रसायनों के छिड़काव के तुरन्त बाद वर्षा आ जाये तो उपचार को दोहराना चाहिये। यूरिया के घोल में मैन्कोजेब मिलाकर भी छिड़का जा सकता है, ऐसा करने से अतिरिक्त खर्च व समय की बचत होती है। जिस खेत में मोल्या रोग की शिकायत हो तो उसकी खेत की मिट्टी क नमूना परीक्षण हेतु कृषि अनुसन्धान केन्द्र के सूत्रकृमि विभाग को भेजें। नमूने के साथ फसल का विवरण और अपना पूरा पता लिखना न भूले। गेहूं के बीजों को अगले साल बोने के लिये यदि भण्डारण करना हो । उसको 8 मिलिलीटर डेकामैथ्रिन8 ई.सी. दवा को 1 लीटर पानी में घोलकर 1 क्विंटल गेहूं को उपचारित करें, जिससे गेहूं कीड़ों के नुकसान से सुरक्षित रहें।
  • सिंचित क्षेत्र में बीज को 5 सेन्टीमीटर से अधिक गहरा न बोये। बीज का समान रूप से उपयोग करे, ताकि कोई खाली जगह नहीं रह जाये।
  • खेत में जड़ गांठ सूत्र कृमि के प्रबंधन हेतु उड़द मूंग (जायद) फसल चक्र अपनाना चाहिए। * (खरीफ)- गेहूँ (रबी) -मूंग (जायद) फसल चक्र अपनाना चाहिए।

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Bheru Lal Gaderi

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