kheti kisani औषधीय फसलों की खेती

ग्वारपाठा की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

ग्वारपाठा
Written by Vijay Gaderi

ग्वारपाठा संपूर्ण भारतवर्ष में प्राकृतिक रूप से मिलता है। यह यूरोप, उत्तरी अमेरिका, स्पेन, थाईलैंड, चीन, वेस्टइंडीज, भारत आदि देशो में भी पाया जाता है। इसके पौधे बहुवर्षीय तथा दो-तीन फीट ऊंचे होते हैं तथा इसके मूल के ऊपर काण्ड से पत्ते निकलते हैं। यह काण्ड को चारों ओर से घिरे रहते हैं तथा निकास स्थान से इसका वर्ण श्वेत होता है। धीरे-धीरे यह आगे जाकर हरा हो जाता है। इसके पत्ते मांसल, भालाकार, 1.5-2.0 तक लंबे व 3-5 इंच चौड़े एवं सूक्ष्म कांटों से युक्त होते हैं। पत्तों के अंदर घृत के समान चमकदार गुद्दा होता है तथा इसके बीच-बीच में कुछ रेशे भी दिखाई देते हैं। पुराने क्षुप के  मध्य लंबा पुष्पध्वज निकलता है, जिस पर रक्ताभ पीत वर्ण के फूल आते हैं। ग्वारपाठा के पत्तों को काटने पर एक पीले रंग का रस निकलता है, इसे ‘कुमारी सार’ कहते हैं।

ग्वारपाठा

मुख्य औषधीय कारक:-

ग्वारपाठे के पत्तों में 94% पानी एवं 6% अमीनो अम्ल (२० प्रकार के) एवं कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं। घृत कुमारी के पत्तों में एलोइन नामक ग्लुकोसाइड समूह होता है। इसके अतिरिक्त बारबेलाइन, बि बारबेकोईन, आइसो बारबेलोइन तत्व उपस्थित होते हैं। साथ ही इसमें एलो-इमोलिन, रॉल, गैलिक अम्ल एवं सुगंधित तेल होता है।

प्रमुख प्रजातियां:-

ग्वारपाठा मुख्यतयाः अफ्रीका, अरब देशों तथा भारतवर्ष में पाया जाता है। इसके प्राप्ति स्थल एवं देश, भेद के अनुसार इसकी कई प्रजातियां पहचानी गई है। इन में मुख्य हैं:

 ऐलो बारबडेनसिस:-

यह ग्वारपाठे की मुख्य प्रजाति है जो सर्वत्र विशेषकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि प्रांतों में पाई जाती है। ग्वारपाठे की यह प्रजाति जेल निकालने के लिए संपूर्ण भारतवर्ष में उगाई जाती है।

हेलो इंडिका:-

यह ग्वारपाठे की छोटी प्रजाति है, जो भारत में चेन्नई से रामेश्वरम तक पाई जाती है, इसे छोटा ग्वारपाठा भी कहा जाता है। इसके पत्ते से 7 इंच के 1 फुट तक लंबे होते हैं हम किनारे सामान्यतः दन्तुर होते हैं। यह प्रजाति विशेषता दाह, विबंध और ज्वर आदि रोगों में उपयोगी होती है।

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जलवायु:-

यह सभी प्रकार की जलवायु में उगाया जा सकता है। मुख्यतः उष्ण प्रदेशों में इसकी अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

भूमि:-

ग्वारपाठा की खेती मुख्य रूप से बलुई दोमट भूमि में उचित एवं सिंचित दोनों प्रकार से आसानी से की जा सकती है। परंतु इसकी खेती सदैव असिंचित भूमि पर करनी चाहिए तथा जिस जमीन पर इसकी खेती करनी है वहां पानी भरा नहीं रहना चाहिए। इसकी जड़ भूमि में अधिक गहराई तक नहीं जाती है। यह सभी प्रकार की भूमियों में लगाया जा सकता है।

खेत की तैयारी:-

इसकी खेती के लिए मुख्यतया खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता नहीं होती है। यह बहुवर्षीय फसल होने की वजह से पौध रोपाई के पूर्व में 10-१५ टन सड़ी गोबर की खाद खेत में डालना लाभप्रद माना जाता है।

रोपण का समय:-

ग्वारपाठे की फसल कंदो के द्वारा उगाई जाती है। इसका पौधरोपण वर्षाकाल में जुलाई-अगस्त माह में किया जाता है। ग्वारपाठे की बुवाई फरवरी-मार्च माह में भी की जा सकती है। परंतु इस रोपाई के बाद पौधों में फुटान के लिए नमी की आवश्यकता होती है। अतः फरवरी-मार्च में की गई रोपाई के बाद ही हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

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पौधे एवं रोपण विधि:-

पौधों को क्रमबद्ध तरीके से लाइन में लगाना चाहिए। लाइन से लाइन तथा पौधे से पौधे की दूरी क्रमश 2×2, 2.5×2.5 एवं 3×3 फिट तक रखनी चाहिए। इस प्रकार एक हेक्टेयर खेत में 28000, 18000 एवं 12000  तक पौधों की आवश्यकता होती है परंतु यदि सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था हो तो पौधों को 2.5×2.5 फ़ीट पर लगाने पर पतियों की मोटाई एवं लंबाई अधिक होगी जिससे अधिक पैदावार होती है।

सिंचाई:-

साधारणतया ग्वारपाठे की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है परंतु गर्मियों में कभी-कभी हल्के पानी का छिड़काव करना लाभदायक होता है। पत्तियों की कटाई से 1 माह पूर्व फसल में सिंचाई करने से अधिक जैल प्राप्त होती है।

निराई गुड़ाई:-

प्रत्येक माह के अंतराल पर खेत की निराई-गुड़ाई करके अवांछित पौधों को निकालते रहने से इसके उत्पादन में वृद्धि होती है।

कंदो को हटाना:-

फसल के जमने के पश्चात इसकी जड़ों में कंद निकलना शुरु हो जाते हैं, जो खेत में लगातार पौधों की संख्या बढ़ाना शुरू कर देते हैं. खेत में तादाद से ज्यादा पौधे होने पर इसके उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है। अतः प्रत्येक 6 महीनों के पश्चात पौधों की जड़ों से निकले कंदो को हटाते रहना चाहिए, जिससे पौधों की वांछित संख्या खेत में बनी रहे।

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फसल की कटाई:-

पौधे लगने की 16 महीने के बाद हर पौधे की तीन-चार पत्तियों को छोड़कर शेष सभी पतियों को तेज धारदार हसिये से काट लेना चाहिए।

भंडारण:-

ग्वारपाठे की ताजी कटी कुई पत्तियों को ज्यादा दिनों तक भडारित नहीं किया जा सकता अतः कटाई के पश्चात दो-तीन दिन के भीतर इनमे से जेल को निकाल लेना चाहिए एवं कटाई के बाद पत्तों को छाया में रखना चाहिए। जेल निकालने के बाद इसमें उपयुक्त प्रिजर्वेटिव डालकर 1 से 2 साल तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

प्रमुख रोग एवं कीट:-

मुख्यतया इस फसल को किसी प्रकार के कीट एवं रोग नुकसान नहीं पहुंचाते हैं परंतु अधिक नमी की वजह से एलटरनेरिया ब्लाइट का प्रकोप पौधों की पत्तियों पर हो जाता है। इस रोग की रोकथाम के लिए 2.3 ग्राम डाईथेन एक-45 का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

उपज:-

इस प्रकार की कृषि क्रिया से वर्षभर में प्रति हेक्टेयर से ग्वारपाठे के लगभग 250 क्विंटल ताजा पत्ते प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष प्रति हैक्टेयर खेतों से लगभग 25000 कंद प्राप्त होते हैं, जिनको रोपाई के काम लाया जा सकता है।

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उत्पादन:-

ग्वारपाठे की पौध रोपण सामग्री तैयार करने के लिए अलग से कोई व्यवस्था करने की आवश्यकता नहीं होती है। परंतु जिस खेत में फसल ली गई है, वही ग्वारपाठा की जड़ों से स्वतः ही नए पौधे निकलते रहते हैं जिनको प्रत्येक 6 महीने के अंतराल पर निकालते रहना चाहिए एवं उनको दूसरी फसल बुआई में प्रयुक्त कर सकते हैं। इस प्रकार एक ही फसल से प्रतिवर्ष लगभग 25000 पौधे नये तैयार हो जाते हैं।

उपयोग:-

अनेको उद्योग में प्रयुक्त होने के कारण वर्तमान में ग्वारपाठा की मांग काफी बढ़ गई है। इसकी जेल व सूखे पाउडर की मांग विश्वस्तर पर बनी रहती है। वर्तमान में इससे अनेक उत्पादन सौंदर्य प्रसाधन के रूप में बाजार में उपलब्ध है। जैसे- एलोवेरा बाथ सोप, एलोवेरा शैंपू, एलोवेरा हेयर ऑयल, एलोवेरा टूथ पेस्ट, एलोवेरा शेविंग क्रीम, एलोवेरा केश वॉश एवं एलोवेरा मॉइश्चराइजर आदि।

फसल का आय विवरण:-

प्रथम वर्ष का शुद्ध लाभ 75000-35500 व 39500 रूपये है। इसके उपरांत ग्वारपाठा की ताजा पत्तियां लगातार 5 वर्षों तक प्रत्येक 3-4 महीने के अंतराल पर काटी जा सकती है। इस खेती का प्रमुख लाभ यह हैं की फसल के एक बार जमने के पश्चात हर वर्ष खेती की तैयारी, रोपन सामग्री व बुवाई की आवश्यकता नहीं होती है तथा आगे के वर्षों में कंदों को हटाना व पत्तियों की कटाई की लागत मात्र 1000 रु./हैक. आती हैं। अतः प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर लगभग 65000  रूपये का लाभ प्राप्ति किया जा सकता हैं।

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प्रोसेसिंग यूनिट:-

ग्वारपाठा से जेल निकालने के लिए प्रोसेसिंग यूनिट की आवश्यकता होती है जो फिल्टरस, कुलिंग, हिटिंग व मिक्सिंग यूनिट्स की बनी होती है। लघु प्रोसेसिंग यूनिट लगभग तीन लाख रूपय में आती है जो प्रतिदिन ४००-500 लीटर जैल निकाल देती है। इसके अतिरिक्त सूखा पाउडर बनाने की मशीन भी आती है। लघु स्तर की प्रोसेसिंग यूनिट लगाने हेतु २०-३० हेक्टेयर फसल क्षेत्र की आवश्यकता होती है। वृहद स्तर की प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए 100 हेक्टेयर फसल की आवश्यकता होती है।

औषधीय महत्व:-

  • यह एंटी इन- फेलोमेट्रो और एंटी एलर्जीक है तथा बिना किसी साइड इफेक्ट्स के सूजन व दर्द को मिटाता है एलर्जी से उत्पन्न रोगों को दूर करता है।
  • यह पेट के हाजमे के लिए लाभदायक है। एलोवेरा के नियमित रूप से प्रयोग करने पर पेट में उत्पन्न विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर किया जा सकता है, जैसे कि गैस का बनना, पेट का दर्द आदि
  • इसकी जैल प्राकृतिक रूप से त्वचा को नमी पहुंचाती है एवं उसे साफ करने के उपयोग में लाई जाती है।
  • यह शरीर में सुक्ष्म कीटाणु, बैक्टीरिया, वायरस एवं कवक जनित रोगों से लड़ने में एंटीबायोटिक के रूप में काम करता है।
  • यह शरीर में उत्पन्न जख्मों को भरने में अत्यंत लाभकारी हैं। मधुमेह के रोगियों के कारगर सिद्ध हुआ है।
  • हृदय के कार्य करने की क्षमता को बढ़ाता है एवं उसे मजबूती प्रदान करता है तथा शरीर में ताकत एवं स्फूर्ति लाता है।
  • यह एक्जिमा, कीटाणु के काटने के स्थान पर किसी भी प्रकार के कट लगने पर, जलने के स्थान पर, चुगने वाली तापमान की गर्मी, मुहासे, घमोरियां, छालरोग, चोट लगने से गुमटा बन जाना इत्यादि में लाभदायक है।
  • जैल बालों में डैंड्रफ को दूर करने तथा बालों को झड़ने से रोकती है।
प्रस्तुति:-

ममता बाज्या, ममता देवी चौधरी एवं तेजपाल बाज्या,

श्री कर्ण नरेंद्र कृषि महाविद्यालय,

जोबनेर जयपुर (राज)

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