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ग्वार की खेती एवं उत्पादन तकनीक

ग्वार
Written by Bheru Lal Gaderi

ग्वार की खेती कुछ वर्षों से नकदी फसल के रूप में बोई जाने लगी है। इसका गोंद के लिये उपयोग किये जाने से इसका औद्योगिक महत्व भी है।

ग्वार

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ग्वार की उन्नत किस्में:-

आर. जी. सी. – 936 (1991):-

अंगमारी रोग रोधक, यह किस्म एक साथ पकने वाली प्रकाश संवेदनशील है। दाने मध्यम आकार के हल्के गुलाबी होते हैं। 80-110 दिन की अवधि वाली इस किस्म में झुलसा रोग को सहने की क्षमता भी होती है।

इसके पौधे शाखाओं वाले, झाडीनुमा, पत्ते खुरदरे होते हैं। सफेद फूल इस किस्म की शुद्धता बनाये रखने में सहायक हैं। सूखा प्रभावित क्षेत्रों में, जायद और खरीफ में बोने के लिये उपयुक्त, एक साथ पकने वाली यह किस्म 8-12 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है।

आर. जी. सी.-986 (1999):-

115-125 दिनों में पकने वाली इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 90-130 से.मी. होती है। यह अधिक शाखाओं वाली किस्म है। जिसकी पत्तियां खुरदरी व बहुत कम कटाव वाली होती है। इसमें फूल 35 से 50 दिन में आते हैं।

इसकी उपज 10-15 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है तथा 28-31.4 प्रतिशत गोंद होता है। इस किस्म में झुलसा रोग को सहन करने की क्षमता होती है।

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आर. जी. सी. 1038:-

राष्ट्रीय स्तर पर अनुमोदित यह किस्म मध्यम अवधि (100-105 दिन) में पक जाती है। इसके पौधों की उंचाई 90-95 सेमी. होती है। इसमें फूल 40-50 दिन में आते है तथा इसकी उपज 10 से 16 क्चिंटल प्रति हैक्टर होती है।

आर.जी.सी. 1055:-

राज्य स्तर पर अनुमोदित यह किस्म मध्यम अवधि (96-106 दिन) में पक जाती है। इसके पौधों की उंचाई 85-90 सेमी. होती है। इसमें फूल 40-50 दिन में आते है तथा इसकी उपज 9 से 15 क्विटल प्रति हैक्टर होती है।

आर.जी.सी. 1017 (2002):-

इस किस्म का विकास नवीन एवं एच.जी. 75 के सकरण सुधार विधि द्वारा किया गया है। पौधे अधिक शाखाओं वाले, ऊंचे कद ( 56-57 सेमी) पत्तियां खुरदरी एवं कटाव वाली होती है। इसमें गुलाबी रंग के फूल 32-36 दिनों में आते है तथा फसल 92-99 दिनों में पक जाती है दाने औसत मोटाई वाले, जिसके दानों का वजन 2.80-3.20 ग्राम के मध्य होता है।

दानों में एन्डोस्पर्क 32-37 प्रतिशत तथा प्रोटीन 29-33 प्रतिशत तक पाई जाती है। इसकी | अधिकतम उपज 10-14 क्विंटल प्रति हैक्टर है। यह किस्म देश के सामान्य रूप से अर्द्धशुष्क एवं कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह किस्म ग्वार पैदा करने वाले सम्पूर्ण क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है।

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आर.जी.सी. 1031 (ग्वार क्रान्ति) (2005):-

यह 74-108 सेमी. ऊंचाई एवं अत्यधिक शाखाओं वाली किस्म है। पौधे पर पत्तियां गहरी हरी, खुरदरी एवं कम कटाव वाली होती है। किस्म में फूल हल्के गुलाबी एवं 44-51 दिनों में आते है। यह किस्म 110-114 दिनों में पक जाती है।

किस्म की पैदावार क्षमता 10.50-15.77 क्विंटल प्रति हैक्टर तक होती है। नमी की आवश्यकता के समय पर सिंचाई देने एवं अच्छे फसल प्रबन्धन के साथ खेती करने पर इसकी उपज क्षमता 22.78 क्विटल प्रति हैक्टर तक होती है। क्रान्ति किस्म के दानों का रंग हल्का सलेटी एवं आकार मध्यम मोटाई का होता है।

फलियों की लम्बाई मध्यम एवं दानों का उभार स्पष्ट दिखाई देता है। इसकी कच्ची फलियों का उपयोग सब्जी के रूप में भी लिया जा सकता है। ग्वार क्रान्ति किस्म के दानों में एण्डोस्पर्म की मात्रा 33.81-36.24 प्रतिशत प्रोटीन 28. 77-30.66 प्रतिशत, गोंद 28.19-30.94 प्रतिशत एवं कार्बोहाइड्रेट 33.32-35.50 प्रतिशत की मात्रा में पाई जाती है। यह किस्म अनेक रोगों से रोग प्रतिरोधकता दर्शाती है।

खेत की तैयारी:-

साधारणतया ग्वार की खेती किसी भी प्रकार की भूमि में की जा सकती है। ग्वार की खेती सिंचित व असिंचित दोनों रूपों में की जाती है। गर्मी के दिनों में एक या दो जुताई और वर्षों के बाद एक या दो जुताई कर, पाटा लगाकर खेत तैयार कर लीजिये ताकि खरपतवार व कचरा नष्ट हो जाये।

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बीजोपचार:-

अंगमारी रोग की रोकथाम हेतु बुवाई से पूर्व प्रति किलोग्राम बीज को 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन दवा को 10 लीटर पानी में घोल बनाकर 3 घण्टे भिगोकर उपचारित कीजिये। बीज को राइजोबिया कल्चर से उपचारित अवश्य करें। राइजोबिया कल्चर से उपचार का विवरण पुस्तक में जीवाणु खाद / कल्चर प्रयोग शीर्षक से दिया गया है।

बीज एवं बुवाई:-

उन्नत किस्म का निरोग बीज बोइये। बुवाई वर्षा होने के साथ-साथ या वर्षा देर से हो तो 30 जुलाई तक कर देना अच्छा रहता है। ग्वार की अकेली फसल हेतु 15 – 20 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टर बोइये, किन्तु इसका मिश्रित फसल के लिये 8-10 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टर काफी होता है। कतारों की दूरी 30-30 सें.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10 सें.मी. रखिये।

खाद एवं उर्वरक:-

साधारणतया किसान ग्वार की फसल में खाद नहीं देते हैं, किन्तु अधिक उपज के लिये रासायनिक खाद उपरोक्तानुसार या मिट्टी परीक्षण के आधार पर देना चाहिए। फॉस्फेट भी देने से छाछ्या रोग का प्रकोप कम हो जाता है।

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सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई:-

खार बोने के तीन सप्ताह बाद यदि वर्षा न हो और संभव हो तो सिंचाई कीजिये। इसके बाद यदि वर्षा न हो तो बीस दिन बाद फिर सिंचाई करें।

पहली निराई-गुड़ाई पौधों के अच्छी तरह जम जाने के बाद किन्तु एक माह में ही कर दीजिये। गुड़ाई करते समय ध्यान रहे कि पौधों की जड़ें नष्ट न होने पायें।

पौध संरक्षण:-

सफेद लट:-

सफेद लट की रोकथाम के लिये सफेद लट नियंत्रण शीर्षक से इस पुस्तक में पृथक से दिये गये विवरण के अनुसार उपाय करें।

मोयला, सफेद मक्खी, हरा तेला:-

नियंत्रण हेतु मैलाथियॉन 50 ई.सी. या डाइमिथोएट 30 ई.सी. एक लीटर या मैलाथियॉन चूर्ण 5 प्रतिशत 25 किलो प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करें।

अल्टरनेरिया ब्लाइट (झुलसा):-

इस रोग की रोकथाम के लिये प्रति तांबा युक्त कवकनाशी दवा (0.3 प्रतिशत) ढाई से तीन किलो छिड़काव करें। दो वर्षीय प्रायोगिक परीक्षण के पश्चात प्राप्त आंकड़ों से ज्ञात होता है कि ट्राइफ्लोक्सीस्ट्रोबिन 25% + टेबुकोनेजोल 50% 75WG की 0.6 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव बीमारी के लक्षण दिखाई देने पर एवं 15 दिवस के अन्तराल पर पुनः छिड़काव करना प्रभावकारी पाया गया है।

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चूर्णी फफूंद (छाछ्या):-

इसके नियंत्रण के लिये ड्रायनोकेप 48 प्रतिशत ई.सी. 1मिली प्रति लीटर का छिड़काव अथवा 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम 50 W.P. प्रति लीटर पानी में मिलाकरछिडकाव करें।

कटाई-गहाई:-

फसल अक्टूबर के अन्त से लेकर नवम्बर के अन्त तक पक जाती है। फसल पक जाने पर काटने में देरी न करिये अन्यथा दाने बिखरने का डर रहेगा। दाने की औसत उपज 10 से 14 क्विंटल प्रति हैक्टर रहती है।

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