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चुकन्दर की खेती की राजस्थान में संभावनाएं

Written by Vijay Gaderi

चुकन्दर चिनिपोडिएसी कुल का शक़्कर उत्पादन करने वाला पौधा हैं। चुकन्दर छोटे जोट क्षेत्रों के लिए कम लागत में अधिक पैदावार देने वाली महत्वपूर्ण फसल हैं। चुकन्दर का वितरण सभी क्षेत्रों में जैसे रूस, अमेरिका, यूरोप, ईरान, इराक आदि हैं। भारत में इसकी खेती की शुरुआत 1974 से प्रारम्भ हुई हैं।

चुकन्दर

उपयोग:-

चुकन्दर लवणीय भूमि जिसकी पि.एच.मान 9.5 हो उसमे भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं। चुकन्दर को सब्जी एवं सलाद के रूप में काम में लिया जाता हैं। चुकन्दर की अच्छी फसल के लिए लगभग 5-10 टन/है. हरी पत्तियां मिलती हैं, जिनमे 10% प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्व होते हैं। इनको गर्मियों में पशु आहार के रूप में प्रयोग किया जा सकता हैं। चुकन्दर की पत्तियों में नत्रजन की काफी मात्रा होती हैं अतः इन्हे हरी खाद के रूप में भी डाला जा सकता हैं।

अच्छी फसल से प्राप्त पत्तियों से अनुमानतः 100 की.ग्रा.नत्रजन भूमि में मिल जाती हैं। चुकंदर से चीनी निकालने के पश्चात बचे भाग को भी पशुओं को विभिन्न रूप में साइलेज बनाकर सुखाकर या ताजे रूप में दिया जाता हैं। इसके अतिरिक्त चुकंदर का शिरा पशुओं को खिलाने के साथ-साथ एल्कॉहल बनाने के काम भी आता हैं।

शक़्कर उत्पादन हेतु गन्ने की फसल के विकल्प के रूप में बहुत उपयोगी हैं। उपरोक्त दोनों फसलों के महत्वों का तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हैं की चुकंदर शक़्कर उत्पादन करने हेतु गन्ना का बेहतर विकल्प हैं, इसमें न केवल प्रति इकाई भूमि से अधिक पैदावार मिलती हैं, वरन शर्करा प्राप्ति फैक्ट्री में औसत शक़्कर उत्पादन अधिक होता हैं साथ ही जल मांग भी गन्ने की तुलना में कम होती हैं।

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जलवायु एवं मृदा:-

चुकंदर को सभी प्रकार की जलवायु में सुगमता से उगाया जा सकता हैं। यह तापक्रम अप्रभावी व वायु से कम सहिष्णु होती हैं, इसे पूर्ण प्रकाशकाल की आवश्यकता रहती हैं। कम जल में खेती की जा सकती हैं। 20-22 डिग्री सेंटीग्रेट ताप पर चुकंदर की अच्छी उपज ली जा सकती हैं।

ठन्डे मौसम से इसमें उच्च शर्करा निर्माण एवं जड़ों के अंदर गहरा लाल रंग पैदा हो जाता हैं। बुवाई का उचि तसमय अक्टुम्बर से नवम्बर होता हैं। बलुई दोमट व दोमट मृदा, अच्छी जल निकासी वाली मृदा उपयुक्त रहती हैं। इसे क्षारीय मृदा में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता हैं।

खेत की तैयारी:-

प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के पश्चात एक बार हेरो चलाकर कल्टीवेटर से क्रॉस में जुताई करनी चाहिए एवं अंत में पाटा चलाकर खेत को समतल कर देना चाहिए। खेत की जुताई के समय उसमे पर्याप्त नमी होनी चाहिए।

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चुकंदर की किस्में:-

चुकंदर की किस्मों का वर्गीकरण उस की जड़ों की आकृति पर की जाती हैं जैसे-  चपटी, छोटी, गोलाकार, अर्द्ध लम्बी व लम्बी। खेती के लिए संस्तुत किस्में हैं-

डेट्रॉएट डार्क रेड:-

शीर्ष छोटा, पत्तियां गहरी हरी, जड़े गोल गहरे लाल रंग की। जड़ों को उबालकर खाने पर मीठी लगती हैं। औसत उपज150से 200 क्विंटल/है. प्राप्त हो जाती हैं। सलाद व भंडारण हेतु उयुक्त किस्म हैं।

क्रिमसन ग्लोब:-

शीर्ष लम्बा, पत्तियां गहरी हरी, जड़ें गोलाकार से चपटी गोल मध्यम लाल रंग की। जड़ों को उबालकर खाने पर मीठी लगती हैं। औसत उपज 150- 200 क्विंटल/है. प्राप्त हो जाती हैं। सलाद व भंडारण हेतु उपयुक्त किस्म हैं।

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प्रसारण एवं मूल वृन्त:-

एक अंकुर वाली जातियों में 5-6 की.ग्रा. व बहु अंकुर वाली जातियों में 10-12 की.ग्रा. बीज को फफूंदनाशी से उपचारित कर बोना चाहिए। कतार से कतार की दुरी 50 से.मी. एवं पौध से पौध की दुरी 20 से.मी. पर२से.मी. गहराई पर बोना चाहिए।

कटाई-छंटाई:-

चुकंदर की जड़ों का उचित आकार लेने के बाद उनका शीर्ष कृन्तन करने से लाभप्रद रहता हैं।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन:-

अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद की 25 टन/हैक. की मात्रा खेत की तैयारी के वक्त मिला दी जानी चाहिए। 120 की.ग्रा. नत्रजन जिसे तीन चरणों में 1/3 बुवाई के समय, 1/3 पौध छटाई के वक्त, शेष बुवाई के 3-4 माह पश्चात फास्फोरस 60 तथा पोटाश 60 की.ग्रा. देनी चाहिए बोरोन की सूक्ष्म मात्रा में आवश्यकता रहती हैं। इसके लिए आवश्यकता होने पर बॉरोक्स 11 की.ग्रा./हैक. दिया जा सकता हैं।

सिंचाई प्रबंधन:-

सिंचाई के लिए सुनिश्चित अंतराल निर्धारित नहीं हैं, किन्तु 6-8 सिंचाइयाँ लाभप्रद रहती हैं। प्रथम दो सिंचाइयाँ 15-20 दिन के अंतराल पर एवं बाद में फसल कटाई तक 20-25 दिन के अंतराल पर दी जानी चाहिए।

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खरपतवार प्रबंधन:-

बुवाई के पश्चात 60 दिनों तक फसल को खरपतवार से मुक्त रखा जाना चाहिए। इसके लिए निराई-गुड़ाई बुवाई के 30 दिन पश्चात एवं द्वितीय निराई-गुड़ाई बुवाई के 55 दिन पश्चात करनी चाहिए।

कीट एवं रोग प्रबंधन:-

चुकंदर की फसल को मुख्यतः कातरा और रोमिल इल्ली नुकसान पहुँचाती हैं, अतः फसल को इन से बचाने के लिए हेप्टाक्लोर २० की.ग्रा. पाउडर का छिड़काव अंतिम जुताई के समय करना चाहिए।

रोगो में मुख्यतः मूल विगलन, पर्ण भित्तिरोग, पर्णचित्ती रोग इनसे बचाने के लिए सदैव बीज को केप्टान/थाइरम से उपचारित कर बोया जाना चाहिए।

कटाई व विधायन:-

बुवाई के 5-6 माह बाद फसल पककर तैयार हो जाती हैं। सब सॉइलर या कल्टीवेटर या एमबी प्लो या देशी हल से खुदाई की जा सकती हैं। जड़ों को धो लेना चाहिए।

पत्तियों में एसिटिक एसिड अधिक होता हैं अतः 100 की.ग्रा. पत्तियों को 100 ग्राम पिसा हुआ चुने से उपचारित कर पशुओं को खिलाने के काम में लिया जाना चाहिए। चुकंदर की जड़ों को खुदाई के 60 घंटे के अन्दर प्रोसेसिंग कर लेना चाहिए अन्यथा शर्करा मात्रा पर विपरीत प्रभाव पडता हैं।

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उत्पादन:-

जड़ों की उपज 300-500 क्वि./है. तक प्राप्त होती हैं जिसमे चीनी की मात्रा 13 से 17% तक होती हैं।

भंडारण:-

चुकंदर की जड़ों का भंडारण कम ताप पर किया जाना चाहिए।

आर्थिक लाभ:-

चुकंदर की 1 हेक्टेयर की खेती में व्यय लगभग 30 से 40 हजार रूपये आता हैं एवं इससे आमदनी लगभग 1,50,000 रु. आती हैं, इस तरह शुद्ध आय लाभ लगभग रु. 1 लाख से1.20 लाख की हो जाती हैं।

इन सभी विशेषताओं को देखते हुए राजस्थान में चुकंदर की खेती की व्यापक संभावनाए हैं। राजस्थान के नहरी क्षेत्रों में, क्षारीय मृदाओं में इसकी खेती सुगमता से हो जाती हैं। राजस्थान में श्रीगंगानगर, जयपुर में इसकी खेती होती हैं।

इसकी वातावरण, तापक्रम, मृदा एवं जल मांग को देखते हुए राजस्थान के जोधपुर, जालोर आदि क्षेत्रों में इसकी खेती को बढ़ावा दिया जाए तो उससे यह फस शक़्कर उत्पादन हेतु गन्ने के विकल्प के रूप में विकसित हो सकती हैं।

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