जौ एक महत्वपूर्ण खाद्यान फसल है। भारत में जौ (Barley Farming) को गरीब की फसल के रूप में समझा जाता है क्योंकि इसकी खेती के लिए कम लागत की आवश्यकता होती है। यह एक ऐसी फसल है, जिसको उन क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक उगाकर अधिक पैदावार लीजासकतीहै, जहां पर गेहूं की अधिक पैदावार नहीं ली जा सकती है।
ये क्षेत्र है :-
- बारानी क्षेत्र जहां पानी के साधन नहीं है और है तो बहुत ही कम मात्रा में।
- रेतीली, खारी और कमजोर जमीन वाले क्षेत्र।
- मूल्य रोग से ग्रस्त होने वाले क्षेत्र।
जौ की उन्नत किस्में:-
किसी भी फसल का उत्पादन बढ़ाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उसकी उन्नत किस्मों की होती है। अतः किसानों को अपनी क्षेत्रीय सिफारिश के अनुसार किस्मों का चुनाव करना चाहिए।
क्षेत्रीय सिफारिश के अनुसार जौ की किस्में व बीज की मात्रा एवं बुवाई की जानकारी निम्न प्रकार हैं:-
जौ की उन्नत किस्में | ||||
बुवाई की स्थिति सिंचित/असिंचित | किस्में | बुवाई का उचित समय | बीज की मात्रा (किलो में) | पंक्ति से पंक्ति की दुरी (से.मी.) |
सामान्य बुवाई सिंचित | आर.डी.2035, आर.डी.2503, आर.डी.2552, आर.डी.-2592, | मध्य अक्टुंबर से नवम्बर तक | 100 | 22.5 |
बारानी क्षेत्र के लिए असिंचित | आर.डी.-2508 आर.डी.-2624 आर.डी.-2660 | मध्य अक्टुंबर से नवम्बर प्रथम सप्ताह तक | 125 | 30 |
ऊसर क्षेत्र के लिए | डी.एल.- 88 आर.डी.-2552 एन.डी.बी.-1173 | मध्य अक्टुंबर से नवम्बर तक | 125 | 25 |
मोल्या (सूत्रकृमि) ग्रसित क्षेत्र के | लिए आर.डी.-2052 आर.डी.-2035
आर.डी.-2592 | मध्य अक्टुंबर से नवम्बर तक | 125 | 25 |
इसके अतिरिक्त अन्य प्रजातियां में उत्तरी मैदानी क्षेत्रों के लिए ज्योति, आजाद, के -15, हरीतिमा, प्रीति, जागृति, लखन, मंजुला, नरेंद्रजौ-1,2 एवं3, एन. डी. बी. -1173, के-603 तथा छिलका रहित जौ गीतांजलि मुख्य है। ये सभी किस्में छः धरी युक्त की किस्में है।
खेत की तैयारी:-
खेत की अच्छी तरह से जुताई करें। आखरी जुताई से पहले भूमिगत कीड़ो की रोकथाम के लिए क्यूनॉलोफॉस1.5% चूर्ण 25किलो प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलायें। खेत को समतल बनाना बहुत आवश्यक है। ऐसा करने से कम पानी से भी उचित सिंचाई की जा सकती है।
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जैविक खाद एवं उर्वरक
भली-भाती पक्की हुई गोबर की खाद 8-10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से कम से कम तीन वर्ष में एक बार बुवाई से एक माह पूर्व अवश्य दे।
आमतौर पर उर्वरक खेत मिट्टी की जांच के बाद डालने चाहिए। सिंचित क्षेत्र में 80 किलो नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए, तथा असिंचित क्षेत्र में यह मात्रा 40 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। फॉस्फोरस एवं पोटाश उर्वरकों की पूरी मात्रा (क्षेत्रीय सिफारिश के अनुसार) एवं नत्रजन की आधी मात्रा को बुवाई के समय देना चाहिए।
शेष आधी नत्रजन खड़ी फसल में पहली और दूसरी सिंचाई के बाद दे। नत्रजन उर्वरक की मात्रा 6 पंक्तियों में छिड़कर कर दे। तथा जिंक की कमी वाले क्षेत्रो में अच्छे उत्पादन के लिए 10 किग्रा जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए। परन्तु असिंचित क्षत्रों में सभी उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय ही दे।
बुवाई का समय:-
सभी क्षेत्रों में 20 अक्टुम्बर से 10 नवम्बर तक तथा सिंचित क्षेत्रों में 25 नवम्बर तक सम्पूर्ण बुवाई कर देनी चाहिए।
बीज की मात्रा:-
सिंचित क्षेत्र में 75 की.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर व असिंचित क्षेत्र में 100 की.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बुवाई करनी चहिए।
बुवाई की विधि:-
बीज 2-3 सेमी. की दूरी पर एवं 5-6 सेमी. गहरा बोयें। असिंचित क्षेत्र में बुवाई 6-8 सेमी. गहराई में बुवाई करे, जिससे की बीजों को जमाव के लिए पर्याप्त नमी मिल सके।
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बीजउपचार:-
बीज से फैलने वाली बीमारियां जैसे – पत्तिधारी एवं आवृत कण्डवा रोग से फसल को बचने के लिए बीज को 3 ग्राम थाइरम या 2 ग्राम मैंकोजेब प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करके बुवाई करनी चाहिए।
जहां अनावृत कण्डवा का प्रकोप हो वहां कार्बोकीस्न (विटावेक्स) + थाइरम का 1+1 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करके ही बोयें।
दीमक:-
यदि मिट्टी में दीमक का प्रकोप हो तो400मि.ली. क्लोरोपायरीफास20ई.सी. को आवश्यकतानुसार पानी में घोलकर100किलोबीज पर समान रूप से छिड़ककर बीजोंकोउपचारितकरेंएवंछायामेंसुखाकरहीबुवाईकरे।
सिंचाई:-
जौ की इन किस्मों को अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। सामान्यतः हल्की दोमट मिट्टी में 4-5सिंचाई की और भारी मिट्टी में 2-3 सिंचाई की आवश्यकता होती है। बुवाई के 25-पश्चात पहली सिंचाई दे,इस समय पौधों की जड़ों का विकास होता है।
दूसरी सिंचाई आवश्यकतनुसार जिससे पौधो की फुटान अच्छी प्रकार होती है। इसके पश्चात् तीसरी सिंचाई बलिया आने पर एवं चौथी सिंचाई दाना दूधिया अवस्था में हो तब पानी की कमी नहीं होनी चहिए।
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निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार प्रबंधन:-
प्रथम सिंचाई के 10-12दिन के अंदर कम से कम एक बार निराई-गुड़ाई कर खरपतवार अवश्य निकाल देवें।
चौड़ी पत्ती वाली खरप्तवारों को नष्ट करने हेतु बोनी किस्मों में बुवाई के 30-35 दिन व अन्य किस्मों में 40-50 दिन के बिच 2,4-डी एस्टर साल्ट 500 ग्राम/हेक्टेयर या 250 ग्राम मेटाक्सीरॉन या 750 ग्राम 2-4 डी एमाइन साल्ट खरपतवारनाशक रसायन का 500-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
गुल्ली डंडा व जंगली खरपतवार का प्रयोग जिन खेतों में गतवर्षों में अधिक रहां हो उन मे बुवाई के 30-35दिनबाद आइसोप्रोट्जूरॉन या मेटाक्सीरॉन या मेंजोबेंजाथायोजुरॉन नामक खरपतवारनाशक750 ग्राम (हल्कीमिट्टीकेलिए) तथा1.250 किलोग्राम सक्रिय तत्व (भारी मिट्टी के लिये) पानी में घोलकर एक समान छिड़काव करें। यह ध्यान रहें की छिड़काव समान रूप से हो, कहीं भी दोहरा छिड़काव न होने पाये।
कीटों एवं बीमारियों की रोकथाम:-
कीट नियंत्रण
- फली बीटल एवं फिल्ड क्रिकेट्स:- कीट ग्रस्त खेतों में क्यूनालफॉस 25ई.सी. या मेलाथियॉन 50ई.सी., 800-1000 मी.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से सुबह शाम छिड़काव करें।
- मकड़ी, मोयला व तेला:- मकड़ी का प्रकोप दिखाई देते ही फार्मोथियॉन 25ई.सी. या मिथाइल डिमेटोन 25ई.सी. या डाईमिथोएट 30ई.सी. एक लीटर/हे. याक्यूनालफॉस 25ई.सी. एकलीटर/हैक. या मेलाथियॉन 50ई.सी.एक डेढ़ ली./हैक. की दर से छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार15 दिन बाद छिड़काव दोहराएं।
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रोग प्रबंधन:-
मोल्या रोग
इसमें रोगग्रस्त पौधे छोटे रहकर पीले पड़ जाते है एवं जड़ो में गांठे बन जाती है। इस रोग की रोकथाम हेतु:-
- रोग ग्रस्त खेतों में एक या दो साल तक गेहूं अथवा जौ की फसल नहीं ले।
- जो की मोल्या रोग रोधी किस्में बोने के लिए प्रयो गलें।
- फसल चक्र में चना, प्याज, धनिया, मेथी, आलू या गाजर की फसलले।
- रोग की रोकथाम हेतु मई-जून कड़ी धुप में एक पखवाड़े के अंतराल से खेतो की दो बार गहरी जुताई करें।
रोली रोग
रोली के लक्षण दिखाई देते ही 25 किलो गंधक का चूर्ण प्रति हेक्टेयर की दर से सुबह अथवा शाम को भुरकाव करें 15 दिन के अंतराल पर उसे 4 बार करें या रोग प्रारम्भ होते ही मेंकोजेब 1.250 किलो 20.% या बेलिटोन 500 ग्राम 0.1% घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़के।
अनावृत रोग एवं पत्ति धारी रोग
रोग दिखाई देते हो रोगग्रस्त पौधे को उखाड़ कर नष्ट करें ताकि रोग का फैलाव न हों।
झुलसा एवं पत्ती धब्बा रोग
झुलसा एवं पत्ती धब्बा के कारण पत्तियों पर पीले एवं भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। ये बीमारियां बहुत तेजी से फैलती है तथा फसल को काफी नुकसान पहुंचाती है। इसकी रोगथाम के लिए प्रतिरोधी किस्मों क चुनाव करें तथा जनवरी के प्रथम सप्ताह से 15 दिनों के अन्तर पर 2 कि.ग्रा. मैन्कोजेब या 3 कि.ग्रा. कापर ऑक्सीक्लोराइड या जिनेब की 2.50 कि.ग्रा. मात्रा को 500 लीटर लीटर पानी में घोल बनाकर 3 से 4 छिड़काव करने चाहिये।
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फसल चक्र:-
भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने एवं फसल को कीटों एवं बीमारियों के प्रकोप से बचाने के लिए उचित फसल चक्र अपनाना चाहिये। फसल चक्र जैसे मूंगफली-जौ, ग्वार-जौ, मूंग-जौ, बाजरा-जौ-ग्वार/मूंग-जौ-बाजरा-सरसों बाजरा-जौ आदि फसल चक्र अपनाये जा सकते है।
कटाई-गहाई:-
जौ की फसल की कटाई उचित समय पर करें। विभिन्न क्षेत्रों में कटाई के लिए मार्च के अन्त तक एवं मध्य अप्रेल तक तैयार हो जाती है। जौ की बालिया अधिक सूखने पर दाने गिरने लगते है तथा कई बार बालिया ही टूटने लगती है। जौ के दाने आस-पास की नमि भी जल्दी सोंख लेते है, इसलिए अधिक पकने से पहले ही काट लेना चाहिए।
उपज:-
जौ की उन्नत विधि द्वारा खेती करके प्रति हैक्टेयर क्षेत्र से 35-40 क्विंटल दाने एवं 50-55 क्विंटल भूसे की उपज प्राप्त की जा सकती है।
भण्डारण:-
गहाई के बाद भण्डारण हेतु सूखे स्थान पर रखें। भण्डारण के समय दानों में नमि की मात्रा 10% से अधिक न रखें। उचित मात्रा में नमी के साथ भंडारण करने से दाने की गुणवत्ता बनी रहती है तथा कीटों के दुष्प्रभाव से बचा जा सकताहै।
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