उन्नत किस्में एवं उनकी विशेषताएँ:-
आर टी 348 (चेतक) (2009):-
कृषि अनुसंधान केन्द्र, मण्डोर द्वारा विकसित तिल की इस किस्म में सूखा सहनशील की क्षमता एवं 83 दिन में पकने वाली है। पर्ण कुंचन, फिलोडी के लिए प्रतिरोधी तथा तना व जड़ गलन, अल्टरनेरिया व सर्कोस्पोरा पत्ती धब्बा रोगों तथा फलीछेदक कीड़े के लिये मध्यम प्रतिरोधी है। इसमें तेल की मात्रा 5 प्रतिशत तथा औसत उपज 7 से 9 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। इस किस्म के बीज चमकीले सफेद रंग के होते हैं।
आर टी 351 (2011):-
सफेद चमकीले बीज वाली तिल की इस किस्म के पौधों पर फलियां चौगर्धी लगती है तथा फसल लगभग 85 दिन में पक जाती है। इसके बीजों में तेल की मात्रा 50 प्रतिशत तथा औसत उपज 7-10 क्विटल प्रति हैक्टर होती है यह किस्म पर्ण कुंचन, फिलोडी तथा तना, जड़ गलन रोगों के लिए प्रतिरोधी तथा सर्कोस्पोरा पत्ती धब्बा व फली छेदक कीडे के प्रति मध्यम प्रतिरोधी होती है।
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आर.टी. 127 (2001):-
यह एक सूखा रोधी, जिसके पौधे की औसतन ऊँचाई 90-135 से.मी. बुवाई के 30-35 दिन बाद फुल आने वाली 75-84 दिन में पककर औसत उपज 600-900 किग्रा. प्रति हैक्टर देने वाली किस्म है। इसके बीज सफेद, चमकदार, सुडौल, जिसमें 49.5 प्रतिशत तेल होता हैं। इस किस्म में गॉल मक्खी व वरूथी (माइट्स) का प्रकोप अन्य किस्मों की तुलना मे अपेक्षाकृत कम होता हैं। इसमें जड़ व तना गलन रोग, फिलोडी एवं जीवाणु पत्ती धब्बा रोग के प्रति सहनशीलता हैं। इस किस्म की निर्यात गुणवत्ता उच्च हैं।
आर.टी. 46 (1990):-
यह एक सामान्य ऊँचाई 100- 120 सें.मी. के पौधों वाली किस्म है। इसमें 3-4 शाखाऐं पाई जाती हैं। इसके बीज का रंग सफेद होता है तथा यह 85-90 दिन में पककर तैयार होती है। इसकी उपज 10-12 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त की जा सकती है।
आर.टी. 125 (1995):-
यह एक सामान्य ऊँचाई 100-120 सें.मी. के पौधों वाली किस्म है। इसमें 2-3 शाखायें व फलियाँ चार कक्षीय होती हैं। इसके बीजों का रंग सफेद होता है तथा औसत 1000 दानों का वजन 3.14 ग्राम होता है। इसकी सभी फलियाँ लगभग एक साथ पकती हैं। इसलिये झड़ने से नुकसान कम होता है। इसके पकने की अवधि 80-85 दिन तथा उपज 10-12 क्विंटल प्रति हैक्टर मिलती है।
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टी.सी. 25 (1983):-
यह सामान्य ऊँचाई 90 से 100 सें.मी. के पौधों वाली किस्म है। जल्दी पकने वाली इस किस्म में फूल 30 से 35 दिन में आने लगते हैं तथा फसल 90 से 100 दिन में पककर तैयार हो जाती है। हर पौधे पर औसतन 4-6 शाखाएँ होती हैं जिन पर 65-75 फलियाँ लगती हैं। फलियों में बीज की चार कतारें होती हैं। फलियाँ 2.6 से 2.9 सें.मी. लम्बी एवं 2.7 से 3.00 सें.मी. गोलाई होती हैं। एक फली में बीजों की संख्या 65-75 होती है। इस किस्म की एक विशेषता यह है कि नीचे से ऊपर तक सभी फलियाँ एक साथ पकती हैं जिससे फसल काटते समय बीजों के बिखरने का खतरा नहीं रहता है। इस किस्म की औसत उपज 425 किलो प्रति हैक्टर है। इस किस्म के बीजों का रंग सफेद तथा तेल की मात्रा 49 प्रतिशत होती है।
खेत की तैयारी:-
मानसून की पहली वर्षा आते ही एक या दो बार खेत की अच्छी तरह जुताई करके भूमि को तैयार कर लें।
बीज की मात्रा एवं बुवाई:-
शाखा वाली किस्मों के लिये दो से ढाई किलोग्राम बीज की मात्रा एक हैक्टर क्षेत्रफल में बोने के लिये पर्याप्त होगी। शाखा वाली किस्मों जैसे टी. सी. 25 को कतारों में 35 सेंमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 15 सें.मी. रखते हुए बुवाई करें। शाखा रहित किस्मों में कतार से कतार की दूरी 30 सें.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10 सें.मी. रखें क्योंकि शाखा रहित किस्मों के पौधे अधिक नहीं फैलते हैं। अतः इनके बीच में कम फासला रखा है। पौधों की संख्या प्रति हैक्टर अधिक होने के कारण ऐसी किस्मों के लिए 4-5 किलोग्राम बीज काफी रहता है।
तिल की बुवाई खाद्यान्न एवं दलहनी फसलों के बाद प्राथमिकता के आधार पर करें।
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बीजोपचार:-
तिल की बुवाई से पूर्व एक किलो बीज को 3 ग्राम थाइरम या कैप्टान से उपचारित करें। जीवाणु अंगमारी रोग के प्रकोप से बचाव के लिये बीजों को 2.50 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 10 लीटर पानी के घोल में 2 घण्टे डुबोकर बीजोपचार करें।
उर्वरक प्रयोग:-
कारक (वर्षा, सिचिंत, असिचिंत) किस्म, उपयोगिता) | नाइट्रोजन किग्रा / हैक्टर | फास्फोरस किग्रा. / हैक्टर | पोटाश किग्रा / हैक्टर |
निश्चित वर्षा क्षेत्र | 20 (2 भागो में) | 25 | मिटटी परीक्षण के आधर पर |
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उपरोक्त नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस की पूरी मात्रा फसल की बुवाई के समय इस तरह ऊर देवें कि उर्वरक बीज से 4-5 सें.मी. नीचे रहे। शेष बची नत्रजन की मात्रा बुवाई के चार पाँच सप्ताह बाद खड़ी फसल में हल्की वर्षा के साथ छिटक दें। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उर्वरक की मात्रा न दें।
खरपतवार नियंत्रण:-
फसल में खरपतवारों की रोकथाम के लिये बुवाई के एक माह बाद कुदाली अथवा हैण्ड हो से गुड़ाई कर दें।
तिल में अंतःआश्य:-
तिल को ग्वार या मूंग के साथ कतारों में बोने से दूसरी दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक उपज व आमदनी मिलती है।
फसल संरक्षण के उपाय:-
पत्ती व फली छेदक:-
तिल में मुख्यतः पत्ती व फली छेदक कीड़े का प्रकोप अक्सर जुलाई से अक्टूबर तक प्रतिवर्ष रहता है। इनकी सूण्डियाँ जाला बनाती हैं। जिसके फलस्वरूप पौधे के बढ़ने वाले भाग की कोमल पत्तियाँ आपस में जुड़ जाती हैं एवं पौधों की बढ़ोतरी रूक जाती है।
पत्ती व फली छेदक के नियंत्रण हेतु डेढ़ माह (बुवाई के 45 दिन बाद) पर पहला छिड़काव एसीफेट 75 एस.पी. 500 ग्राम प्रति हैक्टर और दूसरा छिड़काव इसके 15 दिन बाद साइपरमेथ्रिन 25 ई.सी. 400 मिलीलीटर प्रति हैक्टर की दर से करें।
गॉल मक्खी, सैन्य कीट, हॉकमॉथ तथा फड़का:-
यदि फली छेदक के लिये दवा का छिड़काव किया गया हो तो इसका नियंत्रण स्वतः हो जाता है। गॉल मक्खी गिडारों के आक्रमण के कारण फलियाँ फूलकर गांठ का रूप धारण कर लेती हैं। झुलसा एवं अंगमारी इस बीमारी की शुरूआत पत्तियों पर छोटे भूरे रंग के शुष्क धब्बों से होती है, बाद में ये बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं और तनों पर भी इसका प्रभाव भूरी गहरी धारियों से होता है। ज्यादा प्रकोप की स्थिति में शत प्रतिशत हानि होती है। रोग के प्रथम लक्षण दिखाई देते ही कैप्टान 2-5 किलोग्राम या मैन्कोजेब 2 किलोग्राम प्रति हैक्टर का छिड़काव 15 दिन के अन्तर से करें।
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छाछ्या (पाऊडरी मिल्ड्यू):-
सितम्बर माह के आरम्भ में पत्तियों की सतह पर सफेद-सा पाउडर जमा हो जाता है। ज्यादा प्रकोप होने पर पत्तियों की सतह पीली पड़कर सूख कर झड़ने लगती है। फसल में वृद्धि ठीक से नहीं हो पाती है। लक्षण दिखाई देते ही गंधक पाउडर 20 किलो प्रति हैक्टर भुरकें या कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू. पी. 200 ग्राम प्रति हैक्टर की दर से छिड़कें। आवश्यकतानुसार 15 दिन बाद इसे फिर से दोहरायें।
जड़ एवं तना गलन:-
रोगग्रस्त पौधों की जड़ व तना भूरे रंग के हो जाते हैं। रोगी पौधों को ध्यान से देखने पर तने, शाखाओं और फलियों पर छोटे-छोटे काले दाने दिखाई देते हैं। रोगी पौधे जल्दी ही पक जाते हैं। रोग की रोकथाम हेतु बुवाई से पूर्व प्रति किलो बीज को 3 ग्राम कैप्टान या थाइरम से उपचारित करें। पत्तियों के धब्बे जीवाणु द्वारा होने वाले इस रोग में पत्तियों पर भूरे रंग के तारानुमा धब्बे दिखाई देते हैं।
ये धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर सारी पत्तियों पर फैल जाते हैं। रोग की रोकथाम हेतु बुवाई से पूर्व बीजों को 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 10 लीटर पानी के घोल में 2 घंटे डुबोकर सुखा लें। बुवाई के डेढ़ से दो माह बाद 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 10 लीटर पानी के घोल मिलाकर 15-15 दिन के अन्तर से दो तीन बार छिड़काव करें।
पत्ती विषाणु रोग:-
यह विषाणु रोग कीड़ों द्वारा फैलता है एवं पौधों में फूल आने के समय लक्षण प्रकट होते हैं। अतः क्यूनालफॉस 25 ई.सी 1 लीटर का प्रति हैक्टर की दर से दो बार छिड़काव (बुवाई के 25 दिन बाद व 40 दिन बाद) करना लाभप्रद रहता है।
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