तोरई (Ridge gourd Farming) बेल वाली एक ऐसी कद्दू वर्गीय सब्जी है जो बड़े-बड़े खेतों के अलावा छोटी-छोटी ग्रह वाटिका में भी आसानी से उगाई जा सकती है। इसके फलों को कच्ची अवस्था में अकेले या अन्य सब्जियों के साथ मिलाकर सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसका फल कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा और विटामिन ए का अच्छा स्त्रोत है। तोरई की बाजार में मांग अधिक होने से इसकी खेती काफी लाभदायक है। इसकी खेती गर्मी और वर्षा ऋतु में सफलता से की जाती है।
जलवायु और भूमि का चुनाव:-
तोरई प्रायः अनेक प्रकार की परिस्थितियों में उगाई जा सकती है, फिर भी इस के पौधे की गर्म व आर्द्र क्षेत्रों में इसकी बढ़वार अच्छी होती है।
तोरई सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है। मिट्टी में जल निकासी की व्यवस्था के साथ उचित मात्रा में जीवाश्म पर्दाथ हो, सर्वोत्तम रखती है।
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खेत की तैयारी:-
भूमि की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और दो या तीन जुदाईयां देशी हल से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरा और समतल बना लेना चाहिए।
काली तोरई की उन्नत किस्में:-
पूसा नासदार, अर्का सुमित, अर्का सुजात, सतपुतिया, पंजाब सदाबहार, कल्याणपुर, धारीदार, कोयंबटूर-1, पी के एम-1 आदि।
चिकनी तोरई की उन्नत किस्में:-
पूसा चिकनी, पूसा सुप्रिया, पूसा स्नेहा, फुले प्रजतका, काशी दिव्या, कल्याणपुर चिकनी आदि।
बुवाई का समय:-
तोरई की ग्रीष्मकालीन फसल के लिए फरवरी-मार्च एवं वर्षा ऋतु की फसल के लिए जून-जुलाई में बुवाई करते हैं।
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बीज की मात्रा:-
चिकनी तोरई की एक हेक्टेयर की बुवाई के लिए 2.5-3.5 किलोग्राम तथा काली तोरई की 1 हेक्टेयर बुवाई के लिए 3.5-5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।
बुवाई की विधि:-
गर्मी में बुवाई करने के लिए बीजों को पानी से भीगे हुए बोरे में 24 घंटे तक लपेट कर रखना चाहिए। इससे जमाव अच्छा व शीघ्र होता है। बिजाई के लिए तैयार खेत में 2.5 से 3 मीटर चौड़ी क्यारियां बनाते हैं। व प्रत्येक दो क्यारियों के बीच 40 से 60 सेमी चोड़ी एक नाली बनाई जाती है नालियों के दोनों सिरों पर 60 सेमी की दूरी पर 3-4 बीज को एक स्थान पर बोते हैं। बिजाई लगभग तीन से चार सेमी. की गहराई पर करते हैं। जमाव के बाद एक जगह पर केवल एक या दो स्वस्थ पौधों को रखते हैं।
खाद एवं उर्वरक:-
साधारण भूमि में 15-20 तक गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर कि दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। तोरई को 40 से 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30-40 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा के समय ही समान रूप से मिट्टी में मिला देना चाहिए। नाइट्रोजन की बची हुई शेष मात्रा 45 दिन बाद पौधों की जड़ों के पास डालकर मिट्टी चढ़ा देना चाहिए।
सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई:-
गर्मी में बिजाई के तुरंत बाद दो या तीन बार सिंचाई कम अंतर पर करनी चाहिए। जिससे बीज का जमाव हो सके। इसके उपरांत 7 दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए। वर्षा ऋतु में वर्षा ना होने पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करें सिंचाई के समय ध्यान रखें कि पानी बिजाई के साथ से नीचे रहे।
समय-समय पर खेत से खरपतवार निकलते रहना चाहिए। जब बेले काफी बड़ी हो जाए तो खरपतवार निकालना बंद कर दें ताकि आपस में न उलझे। नालियों की गुड़ाई करके पौधों की जड़ों के पास मिट्टी चढ़ाना लाभप्रद है।
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संधाई एवं कटाई-छटाई:-
लोकि की संधि मुख्य रुप से बावर विधि से करते हैं इसके लिए सर्वप्रथम बेल को निश्चित ऊंचाई तक पहुंचाया जाता है इसके बाद बेल को शीर्ष से 10-15 सेंटीमीटर नीचे से काट देते हैं। इसके बाद यहां से नहीं फूटान निकलती है उनमें से दो तीन को रखकर उन्हें बावर में फैलने देते हैं जब इस बेल में चार पांच फल बन जाए तब इसमें तीन चार शाखा रखकर शेष काट देते हैं फिर इसमें से निकलने वाली फुटान को बावर में फैला देते हैं। ताकि पौधों से लगी पुरानी व पिली पढ़ी हुई पत्तियों को हटाते रहना चाहिए।
फलों की तुड़ाई:-
फलों को तभी तोड़ना चाहिए जब फल अपनी पूरी लंबाई का केवल एक- तिहाई आकार प्राप्त कर ले, फल हरे हो तथा रेशेदार हुए हो। तोरई के फल प्रति वर्ष की अवस्था में तोड़े जाते हैं। पढ़ाई के समय सावधानी रखनी चाहिए कि बैलों को किसी तरह की हानि ना हो।
उपज:-
तोरई की औसत पैदावार 80 से 120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
लैंगिक परिवर्तन:-
तोरई की फसल पर दो और चार पत्तियों की अवस्था पर 100पी पी एम एथरिल का छिड़काव करने से मादा फूलों की संख्या व उपज में वृद्धि होती है और अगेती उपज अधिक प्राप्त होती है।
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फसल संरक्षण:-
प्रमुख बीमारियां:-
चिट्टा रोग या पाउडरी मिल्ड्यू:-
इस रोग की फफूंद से पत्तों, तनो और पौधों के दूसरे भागों पर फफूंदी की सफेद आटे जैसी परत जम जाती है। यह रोग प्रायः शुष्क मौसम में लगता है। इस रोग की रोकथाम के लिए केरेथीयॉन एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी को घोलकर छिड़काव करें व आवश्यकतानुसार दोहरावे।
डाउनी मिल्ड्यू:-
इस रोग से पत्तों की ऊपरी सतह पर पीले और नारंगी रंग के कौनदाग धब्बे बन जाते हैं जो शिराओं के बीच सीमित रहते हैं आने वाले मौसम में इन्हीं धब्बों पर पत्ती की निचली सतह पर सफेद या हल्के बैंगनी रंग का पाउडर दिखाई देता है।
इस रोग के नियंत्रण के लिए लौकी की जाति के खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए। पौधों पर मेंकोजेब कॉपर आक्सीक्लोराइड का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।
एन्थ्रेक्नोज:-
इस बीमारी से पत्तों से फलों पर भूरे धब्बे पड़ जाते हैं तथा अधिक नमी वाले मौसम में इन धब्बों पर गोंद जैसा पदार्थ दिखाई देता है। इस रोग से बचने के लिए मैंकोजेब का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 15 से 20 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।
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मोजेक:-
इस रोग से प्रभावित पौधों के पत्ते पीले पड़ जाते हैं। जिससे पैदावार बहुत कम मिलती है यह विषाणु जनित रोग है जो बीज व चेंपा द्वारा फैलता है। इसके बचाव के लिए बीज ऐसे क्षेत्र से प्राप्त करें जो विषाणु से मुक्त हो। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए चेंपा को नष्ट करने के लिए नियमित रूप से कीटनाशक का छिड़काव करें।
प्रमुख कीट लालड़ी या रेड पंपकिन बीटल:-
यह सभी कद्दू वर्गीय सब्जियों का प्रमुख कीट है। इसके लाल पीले रंग के प्रौढ़ पत्तियों में गोल सुराख बनाते हैं तथा क्रीम रंग की सुण्डिया जमीन में रहकर जड़े काटकर पौधों को नुकसान पहुंचाती हैं। मार्च से मध्य अप्रैल तक तथा मध्य जून से अगस्त तक इस का प्रकोप अधिक रहता है। इस कीट की रोकथाम के लिए 0.2 प्रतिशत कार्बोरील का या 0.05 प्रतिशत साईपरमेंथ्रिन का छिड़काव करें। इसकी सुंडियों से बचने के लिए 1.5 लीटर क्लोरपायरिफॉस का एक हेक्टर क्षेत्र में बिजाई के एक महीने बाद सिंचाई के साथ उपयोग करें।
फल मक्खी:-
यह मक्खी कोमल फलों के गूदे में अंडे देती हैं और अंडों से लटे निकलकर गुद्दे को खाती है। जिससे फल सड़ कर खराब हो जाते हैं। इस कीट के प्रकोप से बचने के लिए 0.2 प्रतिशत कार्बोरील या 01 प्रतिशत मेलाथीयॉन का 10 से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए
तेला, चेंपा और माइट:-
यह सभी शिशु तथा प्रौढ़ावस्था में पत्तों से रस चूसते हैं। जिसके कारण पौधे पीले व कमजोर हो जाते हैं तथा पैदावार घट जाती है। इन सभी की रोकथाम के लिए 0.1% मेलाथीयॉन 0.05 या 5% इमिडाक्लोप्रिड का छिड़काव करना लाभप्रद है।
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स्त्रोत:-
अक्षय चितौड़ा, उमेश कुमार धाकड़, नीरज सिंह
राजस्थान कृषि महाविद्यालय, म.प्र.कृ.प्रो.वि. उदयपुर (राज.)
गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर, उत्तराखंड