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बेल की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

बेल
Written by Vijay Gaderi

बेल भारत वर्ष का एक महत्वपूर्ण औषधीय उपयोग एवं धार्मिक फल है। बेल का मूल स्थान उत्तर भारत है,परदेश में कहीं भी इसके नियमित बागवानी नहीं होती है। यह रुटेसी कुल का पौधा है और उस का वानस्पतिक नाम एगिलमार्मेलोस हैं। हमारे देश में यह फल कई नामों से जाना जाता है जैसे बेल्वा,बेल,श्रीफल आदि।बेल वृक्ष हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। इस वृक्ष का इतिहास वैदिक काल में भी मिलता है। यजुर्वेद में बेल के फल का उल्लेख मिलता है।बेल के वृक्ष का पौराणिक महत्व है तथा इसे मंदिरों के आस-पास देखा जा सकता है। पत्तियों का उपयोग पारंपरिक रूप से भगवान शिव को चढ़ाने के लिए किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव बेल के वृक्ष के नीचे निवास करते हैं।

बेल

बेल का फल स्वास्थ्य पर और औषधीय गुणों के लिए प्रसिद्ध है। इसका प्रत्येक भाग (जड़, छिलका, पति तथा फल) औषधियों के रूप में प्रयोग होता है।विशेष कर फल का गूदा अर्जीण, पेचिस एवं डायरिया के लिए अचूक दवा का काम करता है।

फल के अंदर गोंद पाया जाता है। जिसका कई कामों के लिए प्रयोग होता है। इसके साथ साथ विभिन्न पोषक तत्व जैसे खनिज तत्व, विटामिन तथा कार्बोहाइ ड्रेट में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। अतः पोषण की दृष्टि से भी उच्च कोटि का फल है। विभिन्न प्रकार की बीमारियों की रोकथाम व विभिन्न प्रकार के एल्काइड, सेपोनिन्स, फ्लेवोनोइड्स, फिनोल्स व कई तरह के फाइटो के मिकल्स पाए जाते हैं।

बेल के फल गूदे में अधिक ऊर्जा, प्रोटीन, विटामिन, खनिज और एक उदारवादी एंटीऑक्सीडेंट पाया जाता है। इसके साथ ही विभिन्न प्रकार के जीवाणु के खिलाफ अच्छा जीवाणु रोधी गतिविधि पाई जाती है। फलो में गूदे का उपयोग पेट के विकार में किया जाता है। फलों का उपयोग पेचिस, दस्त, हेपेटाइटिसबी, टीबी के उपचार में किया जाता है।पत्तियों का प्रयोग पेप्टिक अल्सर, श्वसन विकार में किया जाता है। जड़ों का प्रयोग सर्वविष, घाव भरने तथा कान संबंधी रोगों के इलाज में किया जाता है। बेल सबसे पौष्टिक फल होता है। इसलिए इसका प्रयोग कैंडी, शरबत, टॉफी के निर्माण किया जाता है।

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जलवायु:-

बेल के वृक्ष बहुत ही सहिउष्ण होते हैं और बिना किसी देखरेख जलवायु के ये सुखी या नम स्थानों में पैदा किए जा सकते हैं।विशेषकर शुष्क जलवायु वाले स्थानों में इसके पेड़ अधिक स्वस्थ पाए गए हैं। पाले का पेड़ पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। और 6.66 सेंटीग्रेड तापमान तक सहनशील रहते हैं।

भूमि का चयन:-

बेल के पौधे को किसी भी तरह की भूमि में उगाया जा सकता है, पर बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए बेहतर होती है, ऊसर, बंजर, कंकरीली, खादरऔर बीहड़ जमीन में इसकी अच्छी बागवानी हो सकती है। वैसे बेल के लिए 6- 8 पि.एच. वाली जमीन सबसे ज्यादा अच्छी होती है।

प्रजातियां:-

पंतशिवानी, पंतअपर्णा, पंतउर्वशी, पंतसुजाता, सीआईएसएचबी-1 और वगैरह बेल की अच्छी किस्में हैं। इन किस्मों की बेल में रेशा और बीज बहुत ही कम होते हैं। इस किस्म की पैदावार प्रति पेड़ 40 से 60 किलो तक पाई जाती है।पौधे बीज से तैयार किए जाते हैं। मई और जून महीने में इनकी बुवाई की जाती है।

अन्य प्रजातियां:-

देवरियाबड़ा, मिर्जापुरी, चकिया, बघेल, कागजी, गोड़नं.-1, गोड़नं.-3, बस्तीनं.-2, फैजाबाद ओलांग, फैजाबाद राउंड व नरेंद्र बेलनं.-5 ।

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प्रवर्धन:-

बेल का प्रवर्तन मुख्यतः बीज द्वारा किया जाता है। इस विधि से पौधों में विभिन्नता आ जाती है। बेल को वानस्पतिक प्रवर्धन से भी उगाया जा सकता है।

  1. जड़ से निकले पौधे को मूल तने से इस प्रकार अलग कर देते हैं कि कुछ हिस्सा पौधे के साथ निकल सके। इन पौधों को बसंत में लगाने से काफी सफलता मिलती है।
  2. अनुसंधान क्षेत्रों पर की गई खोजों से यह भी पता चला है कि बेल को सरलता तथा पूर्ण सफलता के साथ उगाया जा सकता है।

जब पौधा 20 सेंटीमीटर का हो जाए तो उसे दूसरी क्यारियों में 30 से.मी. दूरी पर बदल देना चाहिए। दो वर्ष के पश्चात्त क पौधों पर चश्मा बांधा जाता है।मई से जुलाई तक चश्मा बांधने में सफलता अधिक प्राप्त होती हैं। चश्मा बांधने के लिए उस पेड़ जिसकी की कलम लेना चाहते हैं, स्वस्थ तथा कांटो से रहित अधप की टहनी से आंख का चुनाव करना चाहिए, जो 2-3 सेंटीमीटर के आकार का छिलका आंख के साथ निकालकर दो वर्ष पुराने बीजू पौधे के तने से 12 सेंटीमीटर ऊंचाई पर इसी प्रकार अलकाथीन की 1 सेंटीमीटर चौड़ी तथा 20 सेंटीमीटर लम्बी पट्टी से कसकर बांध देना चाहिए।

इस क्रिया के 15 दिन बाद बंधे हुए चश्मों के 8 सेंटीमीटर ऊपर से शीर्ष भाग को काटकर अलग कर देना चाहिए। जिससे आंख से काली शीघ्र निकल आए।चश्मा बांधने के बाद जब तक कली 12 से 15 सेंटीमीटर की ना हो जाए उनकी क्यारियों को हमेशा नमी से तर रखना चाहिए जिससे कली सूखने ना पाए।

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पौधशाला का चुनाव:-

पौधशाला का चुनाव और निर्माण विशेष रूप से ऐसे स्थान पर करना चाहिए।जहां पानी के निकास की अच्छी व्यवस्था हो।इनकी क्यारियों को उपजाऊ दोमट मिट्टी से भरपूर रखना चाहिए।जिनमें पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में हो और उन्हें रोग एवं कीटनाशक दवा से उपचारित कर लेना चाहिए। इनमे नमी बनी रहनी चाहिए।

मई- जून के महीने में जब फल पक जाते हैं, तो फलों से बीजों को निकाल कर तुरंत पौधशाला में बो देना चाहिए। जब पौधा 20 सेमी का हो जाए तो उसे दूसरी क्यारियों में 30 सेमी की दूरी पर बदल देना चाहिए। 2 वर्ष बाद पौधों पर चश्मा बांध दिया जाता है। मई से जुलाई महीने में चश्मा बांधने से सफलता अधिक मिलती है।

चश्मा बांधने के लिए उस पेड़ की जिसकी कलम लेना चाहते हैं, स्वस्थ तथा काटों से रहित और अध पकी टहनी से आँख का चुनाव करना चाहिए। टहनी से 2-3 से.मी. के आधार पर छिलका आँख के साथ निकालकर दो वर्ष पुराने बीजू पौधे के तने पर 10-12 से.मी.ऊंचाई पर इसी प्रकार के हटाए हुए छिलके के खाली स्थान पर बैठा देना चाहिए। इसे अल्काथीन की 1 से.मी.चौड़ी और 20 से.मी.लम्बी पट्टी से कसकर बांध देना चाहिए। इस क्रिया के 15 दिन बाद बंधे हुए चश्मों के 8 से.मी. ऊपर से बीजू पौधे के शेष भाग को काटकर अलग कर देना चाहिए। चश्मा बांधने के बाद जब तक कली 12 से 15 सेमी.की न हो जाए उनकी क्यारियों को हमेशा नमी की कमी नहीं होनी चाहिए।

फलों को पकाना:-

बेल का डंठल इतना मजबूत होता है कि फल पकने के बाद भी पेड़ पर काफी दिनों तक लगे रहते हैं। कच्चे फल का रंग हरा तथा पकने पर पीला सुर्ख हो जाता है। फल का जो हिस्सा धूप की तरफ पड़ता है, उस पर पीला रंग जल्दी आ जाता है। फलों को अच्छी तरह तथा समान रूप से पका हुआ फल प्राप्त करने के लिए उसे पाल में रखकर पकाना चाहिए। पीलापन शुरू होने पर फलों को डंठल के साथ तोड़ लेना चाहिए। डठलों को केवल 2 से.मी. फल पर छोड़कर काट देना चाहिए। इन्हे टोकरियों में बेल के पत्तों से ढककर कमरे के अंदर रख देना चाहिए। इस तरह फल 10-12 दिन में फलकर अच्छी तरह तैयार हो जाते हैं।

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भंडारण:-

पके हुए फलों को लगभग 15 दिनों तक रख सकते हैं। फलों को 18 से 24 दिनों में उपचारित करके कृत्रिम रूप से पकाकर (30 डिग्री सेल्सियस) में रखा जा सकता है।फलों को सुखी जगह में भंडारित करना चाहिए।

रोग और कीड़े:-

  • बेल के पेड़ पर बहुत कम रोग और कीड़ो का आक्रमण बहुत कम होता है।
  • कभी-कभी गलन की बीमारी लग जाने से फल अंदर ही अंदर खराब हो जाते हैं जिन्हें 0.3% डाइथेम जेड-78 का घोल फलों के तोड़ने के बाद उपचारित किया जा सकता है।
  • अल्टरनेरिया या लिफ़ स्पॉट रोग के पत्तियों पर आने पर कॉपरऑक्सीक्लोराइड के 0.2% घोल का छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।
  • बेल की कोमल शाखाओं तथा पत्तों पर एक प्रकार के कीड़े, जिसे परंभृंग कहते हैं का आक्रमण होता है। इन्हें 0.03% मैटा सिस्टाक्स कीटनाशी के छिड़काव से नियंत्रण किया जा सकता है।

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