भारत जैसे कृषि प्रधान देश में पशुपालन का विशेष महत्व होने के कारण देश की अर्थव्यवस्था में दूध उत्पादन की अहम भूमिका है। भैंस पालन (Buffalo farming) व्यवसाय ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार एवं आय का एक मुख्य साधन बन सकता है, वहीं दूसरी ओर यह कुपोषण की समस्या को भी एक सिमा तक दूर करने में सहायक सिद्ध हो सकता हैं।
भारत में भैंस पशु विश्व की कुल संख्या का 56% मौजूद है। भारत 112 मीट्रिक टन दूध का उत्पादन करके विश्व में प्रथम स्थान पर हैं तथा इसमें लगातार 4.05% प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि हो रही है। हमारे देश में भैंस का 1 वर्ष का औसत दूध उत्पादन 4.2 लीटर प्रति पशु प्रतिदिन है। उत्तराखंड प्रदेश में 2007 की पशुगणना के अनुसार कुल उन 49.5 लाख पशु में 12.5 लाख भैंस शामिल है।
भारतीय भैंस की प्रजातियां:-
भैंसों की नस्ल निम्न प्रकार से वर्गीकृत की जा सकती है:-
1. मुर्रा समूह:-
इस नस्ल का मूल स्थान हरियाणा है। इसके दूध में वसा लगभग 7% होती है। मुर्रा भैंस का शरीर अत्यधिक स्थूल होता है। इसकी अपेक्षाकृत मुड़े हुए सींग, टखने तक लंबी पूछ होती हैं।
कुंडी:-
यह हैदराबाद शहर में पाई जाती है। इसके शरीर का पिछला हिस्सा भारी, दुग्ध शिराएँ मोटी तथा अत्यंत बड़ा होता है। इसकी दुग्ध उत्पादन क्षमता औसत होती हैं।
नीलीरावी:-
यह नस्ल मुख्य रूप से फिरोजपुर पंजाब में पाई जाती है। यह 250 दिन के दुग्धस्रवण में औसत 1600 कीग्रा दूध देती है। यह भैसों की सर्वोत्तम नस्लों में से एक मानी जाती है। इसका सिर सीधा लम्बा, ऊपर से एक-तिहाई उभरा हुआ व आंखे धंसी हुई होती है। इसके सींग छोटे व अत्यधिक मुड़े हुए होते हैं। इसका अयन सुविकसित एवं पूछ लम्बी, जो प्रायः भूमि को छूती हुई होती है।
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2. केंद्रीय भारतीय समूह:-
माण्डा:-
इस नस्लकी भैंस आंध्रप्रदेश और उड़ीसा की पहाड़ियों पर पाई जाती हैं। इसके पैरों पर बालों के गुच्छे पाए जाते हैं तथा रंग सामान्यतयाः भूरा होता हैं। सींग बड़े और पीछे व अंदर की और मुड़े हुए होते हैं।
नागपुरी:-
यह मख्यतयाः महाराष्ट्र के नागपुर जिले में पाई जाती है। इसका रंग काला होता है तथा कभी- कभी सफेद निशान पैरों पर व चेहरे पर देखे जा सकते हैं। दूध में वसा का प्रतिशत 7.0 से 8.5% होताहै। दुग्धस्रवण काल में 1000 किग्रा दूध देती है।
कालाहांडी:-
आंध्रप्रदेश के पुर्वी क्षेत्रों को इस नस्ल का मूल आवास माना गया है। इसका रंग सलेटी होता है तथा सींग मजबूत आधे मुड़े हुए व पीछे की और होते हैं। इसकाउत्पादनसंतोष जनकहोताहै।
पांडरपूरी:-
दक्षिण महाराष्ट्र में यह प्रजाति पाई जाती है। इसका पतला चेहरा और बहुत ही लंबे मुड़े हुए सींग होते हैं।
जेरांगी:-
यह नस्ल उड़ीसा की जेरांगी पहाड़ियों पर मिलती है। इसके सींग छोटे पीछे की तरफ मुड़े हुए होते हैं एवं शरीर का रंग काला होता है। इसकी दुग्ध उत्पादन क्षमता अधिक नहीं होती हैं।
संबलपुर:-
उड़ीसा का संबल पुरस्था नही इसका मूल स्थान माना जाता है। इसका चेहरा लंबा एवं त्वचा का रंग काला होता है। इससे दूध उत्पादन संतोषजनक होता है।
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3. उत्तर प्रदेश समूह:-
तराई:-
यह उत्तराखंड के तराई क्षेत्रों टनकपुर और रामनगर में पाई जाती है। इसके सींग चपटे और मुड़े हुए होते हैं। इसका सर उभरा हुआ होता है। पूछ के बालों का गुच्छा सफेद होता है। यह प्रतिदिन 3 लीटर दूध देती है।
भदावरी:-
यह ग्वालियर और आगरा जिले के आसपास के क्षेत्रों में पाई जाती है।छोटे पैरों वाली इस भैंस का रंग ताम्बे की तरह का होता है। यह दुग्धस्रवनकाल में लगभग 2000 लीटर दूध देती है। इसका छोटा सिर सींगों की तरफ उभरा हुआ होता है।
4. दक्षिण भारतीय समूह:-
दक्षिण भारतीय समूह की मुख्य नस्ल निम्न हैं:-
दक्षिण कनारा:-
यह दक्षिण भारत की बड़ी एवं औसत दूध उत्पादन वाली भैंस है। इसके शरीर पर अधिक बाल होते हैं।
टोडा:-
इस नस्ल कि भैंस तमिलनाडु की नीलगिरी पहाड़ियों पर मिलती हैं। एक भैंस प्रतिदिन 4.5 से 8.5 लीटर दूध देती है। इसके सींग बड़े और बाहरकी ओर मुड़े हुए होते हैं। इसके दूध में वसा की मात्रा 7% होती है।
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6. गुजरात समूह:-
मेहसाणा:-
इस नस्ल का मूल स्थान उत्तरी गुजरात राज्य का मेहसाणा जिला है।इसका दूधस्रवणकाल अपेक्षाकृत लंबा और दूधहिन काल छोटा होता है। यह भैंस अच्छी दुग्ध उत्पादक मानी जाती है। इसका सिर मुर्रा नस्ल के पशु के समान होता है औरउस पर उभरी हुई आंखें होती हैं। इसमें सुरती नाश्ते नस्ल की भांति लंबे दराती के आकार के और मुर्रा नस्ल की भांतिवक्र गांठों वाले सींग होते हैं तथा थन व पिछला धड़ मुर्रा के समान होता है।
सुरती:-
सुरती नस्ल की भैंस का मूल स्थान गुजरात राज्य का पूर्वोत्तर भाग है। इस नस्ल के पशु 10-11 महीने के दुग्धस्रवणकाल में 2,270 से 2,495 लीटर दूध देते हैं। इसके दूध देने की अवधि 4 से 6 महीने तक होती हैं। सींग मध्यम लंबे और दराती आकार के होते हैं। इसका रंग का लाया भूरा होता है। दुग्ध शिराएँ सुस्पष्ट और उभरी हुई होती है।
जाफराबादी:-
इस नस्ल का मूल स्थान काठियावाड़ जिले का गिर जंगल हैं। इसके सर गर्दन की तरफ झुके हुए होते हैं। यह 5 से 8 लीटर दूध प्रतिदिन देती है। इसका उभरा हुआ सर और भारी सींग इसके मुख्य लक्षण है।
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भैसों में आहार व्यवस्था:-
- आदर्श आहार में सभी पोषक तत्व उचित मात्रा में होने चाहिए। भैंसों के आहार का स्वास्थ्यवर्धक होना अति आवश्यक है। पशु आहार को दुर्गंधरहित, सुग्राहा होने के साथ ही संतुलित मात्रा में खनिज लवण एवं विटामिन युक्त होना चाहिए। भैसों को 12 घंटे के अंतराल पर सुबह-शाम चारा देना उपयुक्त होता है। चारा सामग्री को एकाएक नहीं बदलना चाहिए, अन्यथा पशु को अपच हो सकता है। भैसों के आहा रमें हरे दाने की मात्रा लगभग 70% होनी चाहिए। गर्भित भैंस को प्रतिदिन 1 से 2 किलोग्राम अतिरिक्त या ब्याने के 15 दिन पूर्व तक दिया जा सकता है। भैसों के चारे में 2/3 भाग हरा या साइलेज मिलाना चाहिए तथा 1/3 भाग शुष्क पदार्थ मिलाना चाहिए। अच्छा दाना बनाने हेतु निम्नलिखित सामग्रियों का उपयोग होता है।
- अनाज:- जो, मक्का, गेहूं चोकर, चावल की पॉलिश आदि।
- खाईवचूर्ण:- सूरजमुखी की खली, सरसों, सोयाबीन, मूंगफली, बिनोला की खली आदि।
- चारे की फसलें:-ज्वार, बाजरा, लोबिया, नेपियर, एम.पी. चरी, बरसीम, लूसर्न, गिनीघास आदि।
- चुनी और भूसी:-उड़द, चावल की भूसी, मुंग, अरहर आदि।
पशु आहार अवयवों में प्रोटीन की मात्रा:-
खली | प्रतिशत | चोकर | प्रतिशत |
सरसों | 38-40 | चना | 40-45 |
सोयाबीन | 45-50 | मक्का | 10-12 |
मूंगफली | 40-45 | गेहूं | 16-18 |
अलसी | 30-35 | मछली का चूरा | 65-70 |
बिनोला | 28-35 | मक्का ग्लूरन | 45-47 |
मध्यम दूध उत्पादन क्षमता वाले पशुओं को फलीदार हरा चारा पर्याप्त मात्रा में खिलाने पर उसे 3 लीटरदूध के दैनिक उत्पादन की स्थिति तथा राशन देने की आवश्यकता नहीं होती है। आवश्यक कुल शुष्क पदार्थ (पीएनडी) का 95.7% भाग हरे एवं सूखे चारे का अवशेष 3.5% भाग पौष्टिक दाना मिश्रण का होना चाहिए।
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भैसों में व्यवस्था:-
भैसों में प्रजनन क्रिया की सफलता पशुपालकों की सजगता पर निर्भर करती है।समुचित पालन पोषण के आधार पर भैंस के बच्चे का 30 माह की आयु में ऋतुकाल शुरू हो जाता है। भैंस केवल ठण्ड के महीने में गर्मी के लक्षण प्रदर्शित करती है। गर्मी में पशु चारा कम खाता है, बेचैन रहता है, अन्य पशुओं पर चढ़ता है, बार-बार मूत्र त्याग करता है, दूध कम देता है और योनि पर सूजन आ जाती है। उसको अच्छी नस्ल के भैंसे या कृतिम गर्भधान द्वारा ग्याभिन कराना चाहिए। पशु को गर्मी के प्रथम लक्षण के लगभग 12 घंटे बाद ग्याभिन करा देना चाहिए। पशु को संभावित ब्याने के समय से लगभग 1 माह पूर्व खनिज मिश्रण तथा नमक देना बंद कर देना चाहिए। प्रचुर मात्रा में पानी की व्यवस्था के साथ ही प्रसव स्थल स्वस्थ तथा कुत्ते बिल्ली की पहुंच से दूर रखना चाहिए।
नवजात पशुओं की देखभाल:-
नवजात पशुओं की उचित देखभाल से ही दुग्धव्यवस्था का निर्धारित होता है। नवजात पशुओं के जन्म से लेकर 6-8 माह का समय बहुत ही महत्वपूर्ण होता हैं। जन्म के समय नवजात पशु की नाक व मुख से श्लेष्म को हटा देना चाहिए। श्लेष्म को पूर्णतः निकालने के लिए नवजात पशुको पिछली टांगों से पकड़कर लटकाना चाहिए। नाभि को अच्छी तरह से बांधने के बाद ही किसी साफ या नए ब्लेड से उसे काटना चाहिए। नाभि को अच्छी तरह किसी प्रति जैविक या घोल जैसे की 2-7 % टिंचर आयोडीन का लेप लगाना चाहिए। नवजात को खिस का सेवन 1-2 घंटे के भीतर अवश्य कराना चाहिए। प्रसव के दौरान भैंस की मृत्यु होने की स्थिति में उसे कृतिम दुग्धपान करना चाहिए। शारीरिक भार के बराबर प्रतिदिन दूध पिलाना चाहिए।
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भैसों के बच्चों में सामान्य प्रबंध:-
भैंस के बच्चे का 7 से 14 दिन की आयु पर सींग विहिनीकरण करनाचाहिए। जब बच्चा कुछ सप्ताह का हो जाए तो उसे सूखा भूसा तथा अच्छी गुणवत्ता वाली खली खिलानी चाहिए। प्रत्येक बच्चे को 3 माह की उम्र पर पहला तथा इसके छः माह की उम्र पर खुरपका- मुंहपका रोग का टीका लगाना चाहिए। प्रत्येक वर्ष मार्च- अप्रैल माह में एंथ्रेक्स तथा अप्रेल माह में गल-घोटु रोग का टिका लगाना चाहिए, अन्यथा कीड़े पड़ने या संक्रमण का खतरा बना रहता है। यह ध्यान रखना चाहिए की पशुशाला में गंदा पानी इकट्ठा न हो।
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