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राजमा की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

राजमा
Written by Vijay Gaderi

राजमा (Rajma Cultivation) एक दलहनी फसल है। सामान्यतः हमारे देश में राजमा का उत्पादन पहाड़ी क्षेत्रों की ठंडी जलवायु में होता है जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरप्रदेश का पर्वतीय क्षेत्र और महाराष्ट्र का कुछ भाग राजमा की खेती के लिये जाना जाता है, अभी तक मैदानों में इसकी खेती का प्रचलन नहीं हो पाया हैं। इस कारण यह आम धारणा है कि राजमा केवल पहाड़ी भागों में एवं कम तापक्रम के क्षेत्रों में ही उगाया जा सकता है। परीक्षणों के परिणामों से ज्ञात है कि मैदानी भागों में भी रबी के मौसम में इसकी खेती सफलतापूर्वक की हुआ जा सकती है।

राजमा

किस्में:-

पीडीआर-14 (उदय) (1987):-

यह मैदानी भाग में उगाने के लिये एक अच्छी किस्म है। इसके पौधे झाड़ीनुमा होते है। फली का रंग हरा तथा फूलों का रंग सफेद होता हैं व पौधों की ऊँचाई 40 से 50 सेन्टीमीटर होती है। यह किरम 115 से 120 दिन में पकती है। इसकी औसत उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हैक्टर तक होती है, लेकिन सिंचित क्षेत्रों तथा अच्छे फसल प्रबंध में इसकी पैदावार 20 से 22 क्विंटल प्रति हैक्टर तक होती है। इसके दानों का रंग चित्तीदार होता है एवं 100 दानों का भार 38 से 40 ग्राम होता है।

वी एल 63:-

यह किस्म 110 से 115 दिन में पककर तैयार हो जाती है। सिंचित क्षेत्र तथा अच्छे फसल प्रबंध में यह किस्म 20 से 22 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है। इसके दानों का रंग बादामी होता है तथा 100 दानों का वजन 36 से 38 ग्राम होता है।

एच यू आर 15:-

यह किस्म 108 से 110 दिन में पक कर तैयार हो जाती हैं। सिंचित क्षेत्र तथा अच्छे फसल प्रबंध में यह किस्म 18 से 20 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है। इसके दानों का रंग सफेद होता है तथा 100 दानों का वजन 35 से 38 ग्राम होता है।

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एच यू आर 136:-

यह किस्म 105 से 107 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। सिंचित क्षेत्र तथा अच्छे फसल प्रबंध में यह किस्म 14 से 16 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है। इसके दानों का रंग गहरा लाल होता है तथा 100 दानों का वजन 44 से 46 ग्राम होता है।

आर.एस.जे. 178 (अंकुर) (2005):-

सिंचित क्षेत्रों हेतु राजमा की प्रथम प्रादेशिक प्रजाति अंकुर मध्यम ऊंचाई के पौधे जिन पर शाखायें अधिक संख्या में बनती है। तथा एक साथ फलियां समूह में लगती है। इसके पकने की अवधि 115- 120 दिन है। सिंचित क्षेत्रों में जहां भूमि कार्बनिक तत्वों से परिपूर्ण हो 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज देती है। सामान्य एवं स्वर्ण पीत शिरा तथा तना गलन एवं शुष्क जड़ गलन रोगों हेतु प्रतिरोधी क्षमता रखती है। सूत्रकृमि की विभिन्न उपजातियों हेतु प्रतिरोधी क्षमता रखती है। तथा फली छेदक कीटों का प्रकोप नगण्य है। दाने सुडौल गहरे लाल भूरे रंग के आकर्षक एवं चमकीले होते हैं। 100 दानों का वजन 40-45 ग्राम होता है। शकाणुओं से बीज उपचार के पश्चात् जड़ों में नत्रजन स्थिरीकरण अधिकाधिक रूप से करती है। पाले से अपेक्षाकृत कम प्रभावित होती है।

अन्य उपयुक्त किस्में:-

एच यू आर 137 एवं आजाद राजमा ।

भूमि की तैयारी:-

राजमा की खेती सभी प्रकार की उपजाऊ भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है, लेकिन मध्यम दोमट भूमि अधिक उपयुक्त रहती है। अच्छे अंकुरण के लिये खेत की 3 से 4 जुताईयां करना आवश्यक है ताकि भूमि भुरभुरी हो जावे। इसके बाद पाटा लगाकर खेत समतल कर लेवें। अतिरिक्त पानी के निकास का समुचित प्रबंध कर लेना आवश्यक है।

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बीज दर एवं बीज उपचार:-

प्रति हैक्टर 100 से 125 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त रहता है। प्रति कि.ग्रा. बीज को 1 से 2 ग्राम कार्बेडाजिम या 3 ग्राम थाइरम से बुवाई से पूर्व उपचारित करना चाहिये।

बुवाई का समय:-

राजमा की फसल पर तापक्रम के उतार चढ़ाव का हानिकारक प्रभाव पड़ता है। विशेषतः फूलने के समय ठण्ड एवं पाले से बचाव रहना चाहिये। अतः अक्टूबर मध्य से अक्टूबर के अंतिम सप्ताह तक राजमा की बुवाई अवश्य कर दें।

बुवाई की विधि:-

अच्छे अंकुरण के लिये बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी रहनी चाहिये। कतार से कतार की दूरी 30 सेन्टीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेन्टीमीटर रखें प्रति हैक्टर 3.3 लाख पौधे रखें।

खाद एवं उर्वरक:-

अधिक उपज के लिये सड़ी हुई गोबर की खाद 7 से 8 टन प्रति हैक्टर बुवाई से 2 से 3 सप्ताह पूर्व भूमि में मिलावें । इस फसल में 100 से 120 कि.ग्रा. नत्रजन एवं 45 से 60 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करें। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय बीज के नीचे कतारों में डालें। नत्रजन की शेष आधी मात्रा बुवाई के 25 से 35 दिन बाद पहली सिंचाई के उपरान्त देवें।

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सिंचाई:-

बुवाई के बाद राजमा की फसल को सामान्यतया 25 दिन के अंतर से चार सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुबाई के 25 दिन बाद अवश्य करें। इस फसल में गहरी सिंचाई कभी नहीं करें फूल आने व फलियों में दाने बनते समय मृदा में नमी कम होने पर उपज कम हो जाती है।

खरपतवार नियंत्रण:-

पहली सिंचाई के उपरान्त 30 से 35 दिन की फसल में निराई गुडाई कर खरपतवार निकालें। गुड़ाई के समय पौधे के तने पर हल्की मिट्टी चढ़ावें, जिससे फली युक्त पौधों को सहारा मिल सके। इसी समय छंटाई कर पौधों की आपस में दूरी सिफारिस अनुसार निश्चित करें रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु पेंडीमिथेलिन 1 किलोग्राम या मेटोलाक्लोर 1 किलोग्राम या एलायलोर 2 किलोग्राम प्रति हैक्टर अंकुरण पूर्व छिड़काव करें।

पाले से फसल का बचाव:-

दिसम्बर जनवरी में पाले से फसल को बचाने के लिये फसल पर 0.1 प्रतिशत (1 मिली प्रति लीटर पानी) गंधक के तेजाब का छिड़काव करें। संभावित पाला पड़ने की अवधि में इसे दोहरायें।

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कीट नियंत्रण:-

सफेद मक्खी, मोयला एवं तेला की रोकथाम हेतु डाईमिथोएट 30 ई.सी. 875 मिलीलीटर या मोनोक्रोटोफॉस 36 एस-एल. 1 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टर छिड़के। राजमा फली छेदक कीट की रोकथाम हेतु मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 1 लीटर प्रति हैक्टर को 600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़कें।

रोग नियंत्रण:-

विषाणु रोग राजमा की फसल में वाइरस (विषाणु) रोग का हानिकारक प्रभाव देखा गया है। इस रोग को फैलाने वाली मक्खी पर नियंत्रण रखने से रोग स्वतः ही नियंत्रण में रहता है अतः तीन सप्ताह की फसल में सफेद मक्खी की रोकथाम हेतु ऊपर बताया गया उपाय करें।

जड़ गलन एवं कालर रॉट:-

यह स्क्लेरोशियम नामक फफून्द के कारण होता है, इसके नियंत्रण हेतु बुवाई से पूर्व कार्बेन्डाजिम 1-2 ग्राम या थाइरम 3 ग्राम दया प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें।

सफेद तना गलन:-

यह स्क्लेरोशियम नामक फफून्द के कारण होता है। इसके नियंत्रण हेतु बीजोपचार कर बुवाई करने के अलावा फूल आने के समय कार्बेडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़कें। रोग ग्रस्त खेत में 2 से 3 वर्ष तक राजमा, सरसों, मटर, धनियां, चना तथा बरसीम न बोयें।

कटाई तथा गहाई:-

फसल पकने के बाद कटाई में देरी होने से इसकी फलियां चटककर दाने जमीन पर गिर जाते हैं। अतः जैसे ही फलियों का रंग पीला पड़ जाये तथा दाने सख्त हो जावें तभी फसल की कटाई कर लेनी चाहिये। कटाई के बाद फसल को बेलों से खलिहान में 15 से 20 दिन सुखाकर गहाई कर लेवें।

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