प्राचीन काल में ग्रामीण लोग इसको ‘नाहर कांटा’ नाम से पुकारते थे क्योंकि इस की बेल की शाखाओं के हर पोर पर शेर के पंजे में मुड़े हुए नाखून की तरह का कांटा रहता है। सतावर लिलिएसी कुल का आरोही बहुवर्षीय पौधा है। जिसका वानस्पतिक नाम एस्परैगस रेसिमोसस है। यह अंतरराष्ट्रीय बाजार में एस्परैगस के नाम से विख्यात है। यह पौधा एशिया, अफ्रीका एवं ऑस्ट्रेलिया का मूल निवासी है।
क्षेत्रीय नाम:-
संस्कृत- शतावरी, हिंदी- सतावर , बंगाली- सतमूली, गुजराती- सतावर, कन्नड़- जाएबेल, मलयालम- शतावली, मराठी- सतावरी, पंजाबी- शतावर, तमिल- किलवरी, हिमाचल प्रदेश- शतावरी, सहस्त्रमूल, अंग्रेजी- एसपीगोरस।
वानस्पतिक विवरण:-
सतावर का क्षुप 3 से 5 फीट ऊंचा होता है और यह लता के नाम सम्मान बढ़ता है। इसकी शाखाएं पतली। पत्तिया बारीक़ सुई के समान होती है। जो 1.0 से 2.5 मीटर लंबी होती है। इसकी शाखाओं पर 0.5 इंच लंबे सीधे या टेड़े आकार के गुच्छों पर सफेद रंग के फूल खिलते हैं। इसके बीज काले होते हैं। इसकी जड़ें कंदवत लंबी लंबी गुच्छों में होती है।
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भौगोलिक विवरण:-
यह पौधा हिमालय की 1200 मी. ऊंचाई वाले क्षेत्रों तक प्राकृतिक रूप में पाया जाता है। यह पौधा मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ राज्य में साल के मिश्रित वनों में पाया जाता है।
औषधीय उपयोग:-
सतावर की कांदिल जड़े मधुर एवं रसयुक्त होती है। यह शीतवीर्य, रसायन, कामोद्दीपक, मेघाकारक, जठराग्निवर्धक, पुष्टिय, अग्निदायक, अग्निप्रदीपक, रुशिर विकार, गुल्म सूजन, स्निग्ध, नेत्रों में हितकारी शुक्रवर्धक, दूध बढ़ाने वाले, बलकारक एवं अतिसार, वात, पितरक्त तथा दूर करने वाली होती है.
सक्रिय घटक:-
इसकी कंदील जड़ों में सतावरिन एक एवं सतावरिन 5 रसायन पाया जाता है। सतावरिन 1 सार्सपोजिनिन का ग्लूकोसाइड होता हैं।
भूमि व जलवायु:-
सतावर की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी, जिसमे जल निकास की उचित व्यवस्था हो, उपयुक्त होती हैं। इसके लिए उष्ण एव आर्द्र जलवायु उत्तम होती है। जिन क्षेत्रों में तापमान 10 से 50 डिग्री तथा औसत वार्षिक वर्षा 250 से.मी. तक होती है। खेती के लिए उत्तम होती है।
खेत की तैयारी:-
सतावर की खेती से पूर्व भूमि को हल द्वारा दो से तीन बार जुताई कर लेनी चाहिए। तत्पश्चात 15 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालकर पुनः जुताई करनी चाहिए।
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प्रवर्धन:-
सतावर का प्रवर्धन बीजों द्वारा होता है। नर्सरी के लिए 1×10 मीटर की क्यारिया बनाकर बीजों कि बुवाई कर देनी चाहिए। बीजों की बुवाई के लिए सर्वोत्तम समय मई माह का होता है। प्रति हेक्टेयर भूमि के लिए 12 कि.ग्रा। बीज की आवश्यकता होती हैं। लगभग 1 माह बाद अंकुरण प्रारम्भ हो जाता है।
अगस्त माह में जब पौधें की ऊंचाई 8-10 से.मी. की हो जाती हैं तब पौधों को 60×60 से.मी. की दुरी पर लगा देना चाहिए। कभी-कभी भूमिगत जड़ों से पुनः पौध तैयार हो जाती है लगभग 20 दिनों में यह पौध खेतों में लगाने के लिए तैयार हो जाती हैं।
सिंचाई:-
सतावर की फसल के लिए अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। शुरुआत के दिनों में प्रति सप्ताह तथा बाद में महीने में एक बार सिंचाई कर देनी चाहिए।
निराई-गुड़ाई:-
शतावर की अच्छी पैदावार के लिए निराई-गुड़ाई आवश्यक होती है। लगभग महीने में एक बार निराई- गुड़ाई करके खरपतवार निकाल देनी चाहिए।
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रोग एवं उनकी रोकथाम:-
सतावर की फसल पर रोग, कीड़ों का प्रभाव नहीं पड़ता है। फिर भी कभी-कभी कीटनाशकों का छिड़काव करते रहना चाहिए।
दोहन व संग्रहण:-
सतावर की फसल 12 से 18 माह में तैयार हो जाती है। जब पौधा पीला पड़ने लगे, तो जड़ों की खुदाई कर लेनी चाहिए। खुदाई के समय जड़ों में 90% आर्द्रता रहती हैं। अतः जड़ों में चीरा लगाकर छिलका उतार लेना चाहिए। तत्पश्चात जड़ों को धूप में सुखाकर बोरों में भरकर सुरक्षित स्थानों पर संग्रहित कर देना चाहिए।
उत्पादन एवं उपज:-
शतावर की सुखी जड़ों का वर्तमान बाजार मूल्य 25 रूपये प्रति किलोग्राम तक होता है।
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