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सदाबहार की उन्नत खेती एवं उसका औषधीय महत्व

सदाबहार
Written by Vijay Gaderi

सदाबहार का पौधा एपीएसी कुल का सदस्य हैं। इसका वानस्पतिक नाम ‘केथेरेन्थस रोजीयस’ है। यह पौधा पेरीविंकल के नाम से भी जाना जाता है। (Sadabahar Cultivation)

सदाबहार

क्षेत्रीय नाम:-

हिंदी- सदाबहार, बंगाली- गुलफेरिनधि, गुजरात- वार्मिस, कन्नड़-केम्पुकासी, मलयालम- असामलारी, मराठी- सदाफूल, उड़िया-एंशक्ति, तमिल- सुदुकादु- मल्लिकाएं, तेलुगु- बिलार्गन्नेरू, पंजाबी- रतनजोत, अंग्रेजी- पेरीविंकल।

वनस्पतिक विवरण:-

यह सीधा एकवर्षीय या बहुवर्षीय होता है, जिसकी ऊंचाई 30-60 से.मी. तक होती हैं। इसके फूल सफेद या बैंगनी रंग के होते हैं। इनके फलों में 20-30 बीज पाए जाते हैं।

भौगोलिक विवरण:-

सदाबहार, साधारणतया संपूर्ण भारतवर्ष में प्राकृतिक रूप में पाया जाता है। भारत के अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी वियतनाम, श्रीलंका, इजराइल, वेस्टइंडीज आदि देशों में पाया जाता है।

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औषधीय उपयोग:-

इस पौध का उपयोग उच्च रक्तचाप, कैंसर जैसे असाध्य रोगों के लिए उपयोग होने वाली औषधि निर्माण में होता है। यह मूत्रवर्धक, दस्तरोधी, घावों को भरने वाले तथा रक्तस्त्राव को भी रोकता है। इसका उपयोग मधुमेह उपचार के लिए भी किया जाता है।

सक्रिय तत्व:-

इस पौधे में कुल 65 एल्केलाइड पाए जाते हैं। इसमें से इन्डोल, रोबेसिन (एफ़जमेलिसिंत) और सरपेंटाइन आदि प्रमुख हैं। इसकी पत्तियों में विक्रिस्टीन एवं विनब्लास्टिन एल्केलाइड पाए जाते हैं। जबकि जड़ों में अल्मालिसिन व रिस्पारिन नामक एल्केलाइड पाए जाते हैं।

भूमि व जलवायु:-

सदाबहार की फसल के लिए सभी प्रकार की सीमांत भूमि उपयुक्त होती है। यह एक सूखा रोधी फसल है, जहां कोई फसल न हो, वहां इसकी खेती की जा सकती है। यह उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण भागों में अच्छी तरह पनपता हैं। इस फसल के लिए 100 से.मी. तक की वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र के लिए उपयुक्त हैं।

खेत की तैयारी:-

सदाबहार की खेती के लिए चयनित खेत की दो से तीन बार हल द्वारा जुताई करके 8 से 10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट या 250 किलोग्राम हड्डी का चूर्ण या रॉक फास्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए।

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प्रवर्धन:-

इस पौधे का प्रवर्तन बीजों द्वारा किया जाता है।

बुवाई:-

सदाबहार के बीजों को जून- जुलाई माह में तैयार नर्सरी में बोकर पौध तैयार कर लेनी चाहिए। बोने के लगभग 8 से 10 दिनों बाद बीज अंकुरण प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती हैं। पौधशाला में तैयार पौध (बोने के 60 दिन बाद) उखाड़कर खेत में कतारबद्ध तरीके से रोपित कर देना चाहिए।

कतारों से कतारों की बीच की दूरी 45 से.मी. तथा पौध से पौध के बीच की दूरी 30 से.मी. से अधिक नहीं होनी चाहिए। पौधरोपण के तुरंत बाद सिंचाई करना अत्यंत आवश्यक होता है। इस प्रकार प्रति हेक्टेयर भूमि के लिए 5 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है।

उर्वरक:-

  • सदाबहार के की फसल में बुवाई से पूर्व 15 टन गोबर की सड़ी हुई खाद डालनी चाहिए। उन्नत पैदावार के लिए 30 की.ग्रा. नाइट्रोजन,
  • 20 की.ग्रा. फास्फोरस, 20 की.ग्रा. पोटाश की आवश्यकता होती है।

सिंचाई:-

सदाबहार की फसल में वर्षाकाल के दौरान सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। परंतु वर्षा ऋतु के बाद 20 से 30 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करने से उत्पादन में वृद्धि होती है।

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निराई-गुड़ाई:-

इस पौधे की फसल में 30 व 60 दिनों बाद दो से तीन बार नियरै-गई करके खरपतवार उखाड़ देना चाहिए।

रोग व उनकी रोकथाम:-

सदाबहार कि फसल पर सामान्यतयः कीसी भी प्रकार की बीमारी नहीं होती है. परंतु कभी-कभी उखटा सूखा रोग (डाइबेक), पत्ती मोड़क, फ्यूजेरियम, मुरझान रोग आदि प्रकार के रोग लग जाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए 10- 15 दिनों के अंतराल पर डाईथेन जेड- 78 का छिड़काव करना चाहिए।

दोहन व संग्रहण:-

सदाबहार की पत्तियों की फसल दो बार काटी जाती है। पहली बुवाई के 6 माह बाद तथा दूसरी 9 माह बाद काटी जाती है। पत्तियों की दूसरी कटाई तभी करना चाहिए, जब पौधों को जमीन से लगभग अलग कर लिया जाता है। बुवाई के 12 माह बाद जड़ों की खुदाई करनी चाहिए। तोड़ी गई पत्तियों एवं जड़ों को धूप में सुखाकर एक एकत्रित कर लेना चाहिए। फसल के परिपक्व होने पर फलियों को धूप में सुखाकर एकत्रित कर लेनी चाहिए।

उत्पादन एवं उपज:-

सदाबहार की अच्छी फसल के पत्तियों ,तना व जड़ों (सभी सूखे हुए) के ऊपर क्रमशः 30, 10 तथा 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती है।

बाजार मूल्य:-

सदाबहार की सुखी जड़े, पत्ती और तने का वर्तमान बाजार मूल्य क्रमशः 50-60/-, 20-25/-, 10/-रूपये प्रति कि.ग्रा. तक होता है।

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