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सरसों की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

सरसों
Written by Vijay Gaderi

भारत (Mustard Cultivation) की प्रमुख तिलहनी फसलों में सरसों एवं राई का महत्वपूर्ण स्थान है। यह देश में प्रमुख रूप से राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब, आसाम, बिहार, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में उगाई जाती है।

सरसों

राजस्थान का सरसों उत्पादन मेंभारतमें प्रथम स्थान हैं। हमारे प्रदेश में यह फसल सिंचित एवं बारानी दोनों अवस्थाओं में सफलतापूर्वक ले सकने के कारण एक वरदान सिद्ध होती हैं। राजस्थान में प्रमुख रूप से भरतपुर, सवाईमाधोपुर, अलवर, करौली, कोटा, जयपुर एवं सभी जिलों मेंसरसों की खेती की जाती हैं।

सरसों उत्पादन तकनीक के सबसे महत्वपूर्ण पहलू क्षेत्र विशेषके लिए उपयुक्त किस्म का चुनाव एवं उचित समय तकनीक होता है। प्रदेश की कृषि गतिविधियों के अनुसार सरसों एवं राई की निम्नलिखित उत्पादन तकनीक की सिफारिश की गई हैं ताकि कृषकगण सरसों में कम लागत लगाकर अधिक आय प्राप्त कर सकें।

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उन्नतशील किस्मों का विवरण:-

टी-59 (वरुणा):-

मध्यम कद वाली इस किस्म के पौधों की शाखाएं फैली हुई। पकाव अवधि 125 से 1 40 दिन, फलियां छोटी एवं दाने मोटे काले रंग के होते हैं। इसकी उपज असिंचित क्षेत्रों में 10 से 15 क्विंटल एवं सिंचित अवस्था में 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टर होती हैं। इसमें तेल की मात्रा 36% होती हैं यह सफेद रोली ग्रहणशील हैं, लेकिन इसमें मोयला पूसा कल्याणी की तुलना में कम लगता है।

आरएच- 30:-

सिंचित व असिंचित दोनों ही स्थितियों में गेहूं, चना, जो के साथ खेती के लिए उपयुक्त इस किस्म के पौधे 196 सेंटीमीटर ऊंचे, 5  से 7 प्राथमिक शाखाओं वाले एवं पत्तियां मध्यम आकार की होती हैं।

यह किस्म देर से बुवाई के लिए भी उपयुक्त हैं। इसमें 45 से 50 दिन में फूल आने लगते हैं और फसल 130 से 135 दिन में पक जाती है एवं इसके दाने मोटे होते हैं। यदि 15 से 20 अक्टूबर तक इसकी बुवाई कर दी जाए तो मोयले के प्रकोप से बचा जा सकता है।

बायो 902 (पूसा जय किसान):-

160 से 180 सेमी ऊंची इस किस्म में सफेद रोली, मुरजान व तुलासीता रोगों का प्रकोप अन्य किस्मों की अपेक्षा कम होता हैं। इसकी फलियां पकने पर दाने झड़ते नहीं एवं इसका दाना कालापन लिए भूरे रंग का होता है।

इसकी उपज 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टर, पकाव अवधि 130 से 140 दिन एवं तेल की मात्रा 38 से 40% होती है। इसके तेल में इरुसिक एसिड व लिनोलिक एसिड की मात्रा कम होने के कारण तेल में असंतृप्त वसीय अम्ल कम होते हैं।

इसलिए इसका तेल खाने के लिए उपयुक्त होता है। इसके 1000 दानों का वजन 5.8 ग्राम होता है। फलियों में 12 से 15 दाने होते हैं।

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पूसा बोल्ड:-

मध्यम कद वाली इस किस्म की शाखाएं फलियों से लदी हुई व फलियां मोटी होती है तथा इसके 1000 दानों का वजन 6 ग्राम होता है। यह 130 से 140 दिन में पककर 20 से 25 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती हैं। इसमें तेल की मात्रा से 30 से 38% तक पाई जाती है।

वसुंधरा (आर. एच. 9304):-

समय पर एवं सिंचित क्षेत्र में बोई जाने वाली इस किस्म का पौधा 180 से 190 से.मी. ऊंचाई, पत्ती अनियंत्रित गहरे दाते युक्त, पत्ती की निचली सतह हल्की रोमयुक्त, सफेद मध्यशिरा, पत्ती की नोक नुकीली, लोबयुक्त 4.7-5.0 से.मी. लंबी एवं प्रति फली में 14 से 16 बीज होते हैं।

130 से 135 दिन में पकने वाली इस किस्म की पैदावार 25 से 27 क्विंटल प्रति हेक्टर तक होती है। यह किस्म आड़ी गिरने तथा फली छिड़कने से प्रतिरोधी हैं तथा सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी हैं।

माया आर.के.- 9902:-

मध्यम ऊंचाई वाली (165 से 170 से.मी.) यह किस्म 130 से 135 दिन में पककर तैयार हो जाती है। सामान्य समय एवं सिंचित बुवाई के लिए उपयुक्त इस किस्म का पौधा सामान्य शाखा युक्त, सगन फली पकने पर भूरी व बीज काला एवं मोटा तथा 1000 दानों का वजन 5.0 से 5.5 ग्राम होता है। तेल की मात्रा 39 से 40% तथा पैदावार 25 से 29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती हैं। यह किस्मत पत्ती धब्बा (अल्टरनरिया ब्लाइट) से मध्यम प्रतिरोधी तथा सफेद रोली से प्रतिरोधी हैं।

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जगन्नाथ (वी.एस.एल. :- 5):-

सन 1999 में अनुमोदित सरसों की यह बुवाई व सिंचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त किस्म हैं। मध्यम ऊंचाई वाली (165 से 170 से.मी.) यह किस्म 125 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म का पौधा झाड़ीनुमा होता है। तना हरा, गांठ ( नोड) पर हल्का बैंगनी रंग होता है।

बीज स्लेटी से काले रंग का मध्यम मोटा तथा 1000 दानों का भार लगभग 4.8 से 5.0 ग्राम होता है। तेल की मात्रा 39 से 40% तथा औसत पैदावार 20 से 25 क्विंटल हेक्टर होती हैं। यह किस्म पत्ता धब्बा रोग तथा सफेदरोली से मध्यम प्रतिरोधी हैं। पेड़ गिरने से प्रतिरोधी है।

अरावली (आर.एन.- 393):-

135 से 138 दिन में पकने वाली इस किस्म की ऊंचाई मध्यम (155 से 165 सेमी) तथा तना चिकना, गोल, ठोस व हरा, पत्तियां हल्की हरी एवं किनारे कटे-फटे, फूल पीले, 4 से 5 सेमी लंबी फली की नोक छोटी एवं सुई जैसी,

बीज गहरे भूरे एवं मध्यम आकार के होते हैं। 1000 दानों का भार 4 से 5 ग्राम एवं तेल की मात्रा 42% है। 55 से 60 दिन में फूल आने वाली इस किस्म की औसत पैदावार 22 से 25 क्विंटल तक होती हैं। यह सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी है।

लक्ष्मी- (आर.एच.- 8812):-

सन 1997 में अनुमोदित यह किस्म समय से बुवाई एवं सिंचित क्षेत्र के लिए उपयोगी हैं। अधिक ऊंचाई वाली (160 से 180 सेमी) यह किस्म 140 से 145 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं। इस किस्म का पौधा अधिक ऊंचाई व अधिक शाखाओं वाला तना रोए युक्त मजबूत होता है। पत्तीया छोटी एवं पतली लेकिन फली आने पर भार के कारण आड़ी पड़ने की संभावना होती है।

फलियां मोटी एवं पकने पर चटकती नहीं हैं। दाना काला तथा मोटा 1000 दानों का भार लगभग 5 से 4 ग्राम होता है। तेल की मात्रा 40% होती हैं तथा औसत पैदावार 22 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती हैं। यह किस्म पत्ती धब्बा रोग एवं सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी हैं।

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स्वर्ण ज्योति (आर.एच.-9802):-

यह किस्म देर से बोई जाने एवं सिंचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त हैं। इस किस्म का पौधा मध्यम ऊंचाई का (130 से 140 से.मी.) होता है। 30 से 35 दिनमें फूल आने वाली यह किस्म 130 से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है।

इसकी पत्तियां तीखी नोक युक्त, तना गहरा मोम युक्त, प्राथमिक शाखाएं 8 से 10, फली 3.5 से 4.0 सेंटी मीटर लंबी। 10 से 12 बीज प्रति फली, 1000 दानों का भार लगभग 4.5 से 5.0 ग्राम होता है,

तेल की मात्रा 40 से 42% होती हैं। यह किस्म 15 नवंबर तक बोई जाने पर भी अच्छी पैदावार देती हैं। इसकी औसत पैदावार 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टर होती हैं। यह आडी गिरने एवं फली चिटकने से प्रतिरोधी, पाले के लिए मध्यम सहनशील एवं सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी हैं।

आशीर्वाद (आर.के. 01-03):-

यह किस्म देरी से बुवाई के लिए 25 अक्टूबर से 15 नवंबर तक उपयोग पाई गई है। इसका पौधा 130 से 140 सेमी ऊंचा, इसकी पत्तियां तीखी नोक युक्त तथा 35 से 40 दिन में फूल आते हैं। फली लगभग 3.5 से 4.0 सेमी लंबी, 10 से 12 बीज प्रती फली, 1000 दानों का भार लगभग 3.5 से 4.5 ग्राम होता है। तेल की मात्रा 39 से 42% होती हैं। यह किस्म आड़ी गिरने एवं फली चिटकने से प्रतिरोधी, पाले से मध्यम प्रतिरोधी, 120-130 दिन में पककर 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।

डी.एम.ए.- 1:-

यह किस्म सरसों की हाइब्रिड हैं। यह हाइब्रिड भी समय से बुवाई एवं सिंचित क्षेत्र के लिए उपयोगी है। अधिक ऊंचाई वाली (140 से 145 से.मी.) यह किस्म 130 से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है।

इसमें तेल की मात्रा 40 से 41% तक पाई जाती है इसके बीज मध्यम आकार के होते हैं तथा 1000 दानों का बार 4 से 5 ग्राम तक होता है। यह हाइब्रिड बीमारियों एवं कीटों से सहनशील होती है।

एन.आर.सी.एच.बी.:- 506:-

ये हाइब्रिड किस्म भी समय से बुवाई एवं सिंचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त है। अधिक ऊंचाई वाली (150 160 से.मी.) यह किस्म 130 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 40 से 42% तक पाई जाती हैं। इसके बीज मध्यम आकार और गहरे रंग के होते हैं तथा 1000 दानों का 5-6 ग्राम तक होता है। यह हाइब्रिड बीमारियों एवं कीटों से सहनशील होती हैं।

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जलवायु की आवश्यकता:-

भारत में सरसों की फसल शरद ऋतु में ली जाती हैं। इसके लिए तापक्रम 18 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड तक कम आद्रता बहुत अच्छी रहती हैं। सरसों की फसल के लिए फूल आते समय वर्षा, अधिक आद्रता एवं वायुमंडल में बादल छाए रहना अच्छा नहीं रहता है। अगर इस प्रकार का मौसम होता है तो फसल पर माहु या चेपा का अधिक प्रकोप हो जाता है।

खेत की तैयारी:-

सरसों की फसल लेने के लिए दोमट एवं हल्की दोमट मिटटी सर्वोत्तम रहती हैं। जिनमें उचित जल निकास की व्यवस्था हो। इसको हल्की उसर भूमि में भी बोया जा सकता है।

सरसों का बीज छोटा होने के कारण खेत की तैयारी के समय ढेले व मृदा जल की कमी नहीं होनी चाहिए वरना अंकुरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सरसों की फसल सिंचित एवं बारानी दोनों प्रकार से की जा सकती है।

बारानी खेती के लिए भूमि को खरीफ में छोड़कर, उसको समय-समय पर 4-6 जुताई करना चाहिए। जिससे भूमि में नमी पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित हो सके। जबकि सिंचित क्षेत्रों के लिए भूमि की तैयारी फसल कटने के बाद प्रारंभ कर सकते हैं। मृदा में उचित नमी बनी रहे इसके लिए आवश्यकतानुसार पाटा लगाते रहना चाहिए।

यदि खेत में दिमक एवं अन्य कीटो का प्रकोप अधिक हो तो नियंत्रण हेतु अंतिम जुताई के समय क्यूनॉलफॉस 1.5% चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से लगाना चाहिए।

उत्पादन बढ़ाने हेतु सरसों में 2 से 3 किलोग्राम एजोटोबेक्टर एवं पी. एस. बी. कल्चर को 50 किलोग्राम गोबर की खाद या वर्मीकम्पोस्ट में मिलाकर खेत में डालना चाहिए।

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बीज की मात्रा:-

बुवाई के लिए शुष्क क्षेत्र में 4 से 5 किलो तथा सिंचित क्षेत्र में 3 से 4 किलो बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त हो रहता है।

बीज उपचार:-

  • बीज को 2 ग्राम मैनकोज़ेब या 3 ग्राम थाइरम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके ही बोये। सफेद रोली से बचने के लिए बीज को मेटैलेक्जिलएप्रोन 35 एस.डी. 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बोये तथा बुवाई के 30- 45 दिन में डाईथेन एम. 45 (0.2 प्रतिशत) या जेट्रोन (0.25%) का छिड़काव करें।
  • सरसों में एजेक्टोबेक्टर एवं पीएसबी कल्चर से बीजोपचार करें। इससे नत्रजन एवं फास्फोरस उर्वरकों की 20% की बचत होती है।
  • पौधों के बीच की दूरी 10 से 15 सेमी रखते हुए कतारों में 5 से.मी. गहरा बीज बोए। कतार से कतार की दूरी 30 से 45 सेमी रखें। असिंचित क्षेत्रों में गहराई नमी के अनुसार रखें।

बुवाई:-

बारानी क्षेत्रों में सरसों की बुवाई 15 सितंबर से 15 अक्टूबर तक सिंचित क्षेत्रों में 10 से 25 अक्टूबर तक कर देनी चाहिए। सिंचित क्षेत्र में बुवाई पलेवा देकर ही करें। देर से बुवाई करने पर उपज में भारी कमी हो जाती है। साथ ही चेपा तथा सफेद रोली का प्रकोप अधिक होता है। बुवाई के समय वातावरण का तापक्रम के अधिक एवं न्यूनतम का औसत (25 डिग्री सेंटीग्रेड) आने पर करनी चाहिए।

मिश्रित खेती:-

बारानी चने के साथ मिश्रित खेती करने से अधिक लाभ मिलता है। इससे फसल को पाला नहीं मारता है तो दवा भी आसानी से छिड़क सकते हैं। सोयाबीन के बाद अन्तरसस्य के रूप में चना 6 लाइन+ 2 लाइन सरसों के बोने पर एवं 2 सिंचाई क्रमशः शाखाएं निकलते समय व फली में दाना बनते समय देने पर अधिक आमदनी प्राप्त होती है। बारानी क्षेत्रों में सरसों की दो लाइनों के बाद 30- 30 से.मी. की दूरी परचने की दो कतारे बौने से अधिक लाभ होता है।

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खाद एवं उर्वरक प्रबंधन:-

सरसों की फसल, प्रारंभिक अवस्था में अधिक तेजी से वृद्धि करती है। अतः इस फसल के द्वारा शीघ्रता से पोषक तत्व ग्रहण किए जाते हैं। इसलिए सिंचित फसल के लिए 8 से 10 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के 3 से 4 सप्ताह पूर्व खेत में डालकर खेत की तैयारी करें एवं बारानी क्षेत्र में वर्षा से पूर्व 4-5 टन सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत में डाल देवें।

एक- दो वर्षा के बाद खेत में समान रूप से फैलाकर जुताई करे। सिंचित क्षेत्रों 80 किलोग्राम नत्रजन, 30- 40 किलोग्राम फॉस्फोरस एवं 375 किलोग्राम जिप्सम या 60 किलोग्राम गंधक चूर्ण प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। नत्रजन की आधी एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय देवें। शेष आधी मात्रा (नत्रजन) प्रथम सिंचाई के समय देवें। बारानी क्षेत्रों में सिंचित क्षेत्रों से आधी मात्रा से उरवर्क बुवाई के समय देवें।

सिंचाई:-

सरसों की फसल में सही समय पर सिंचाई देने पर पैदावार में बढ़ोतरी होती है। यदि पर्याप्त वर्षा होती है, तो फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। परंतु यदि वर्षा समय पर ना होतो दो सिंचाई आवश्यक है। प्रथम सिंचाई बुवाई के 30 से 40 दिन बाद (फूल आने से पहले) एवं दूसरी सिंचाई 70-80 से दिन की अवस्था में करें। यदि जल की कमी हो, तो एक सिंचाई 40 से 50 दिन की फसल में करें।

निराई- गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण:-

सरसों की फसल रबी में बुवाई की जाती है। इसमें मुख्यत बथुआ, खरथुआ, प्याजी, हिरनखुरी, दूब घास एवं ओरोबंकी खरपतवारओं की अधिक समस्या रहती है। अतः सरसों की फसल में प्रारंभिक अवस्था में खरपतवार नियंत्रण परम आवश्यक है। यदि फसल में पौध संख्या अधिक हो, तो 20-25 दिन बाद के साथ-साथ निकालकर पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंटी मीटर रखें। प्रथम सिंचाई से पूर्व निराई- गुड़ाई करना लाभप्रद रहता है। इससे पोधो की बढ़वार अच्छी होती है।

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सरसों में रसायनों के द्वारा खरपतवार नियंत्रण:-

रसायनों द्वारा खरपतवार नियंत्रण निम्न प्रकार किया जा सकता है-

  1. बुवाई से पूर्व प्रयुक्त करने वाले रसायन:-

सरसों फसल में बुवाई से पूर्व ट्राईफ्लोरोन 48 ई.सी. @0.75 किलो सक्रिय तत्व/प्रति हैक्टेयर (व्यावसायिक दर 1.5 लीटर./है.) को 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव से खरपतवारों की प्रभावी रोकथाम के साथ अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

  1. बुवाई के बाद एवं अंकुरण पूर्ण होने से पहले प्रयुक्त करने वाले रसायन:-

सरसों फसल में अंकुरण पूर्व पेंडामिथेलिन सक्रिय ३० ई.सी. @1.0 किलो सक्रिय तत्व/है. 500 लीटर (व्यावसायिक दर 3.3 लीटर/है.) या ऑक्साडायरजील 6 ई.सी[email protected] किलो सक्रिय तत्व/है. (व्यावसायिक दर 1.5 लीटर/है.) पानी में घोलकर छिड़काव से खरपतवारों की प्रभावी रोकथाम के साथ अधिक उपज प्राप्त होती है। जिससे सरसों की फसल में खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।

पौध संरक्षण:-

पेंटेड बग व आरा मक्खी:-

अंकुरण के 7 से 10 दिन में यह कीट अधिक हानि पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम हेतु क्यूनलफॉस 1.5% या मेलाथियान 5% या मिथाइल पैराथियॉन 2% या कार्बोरील 5% चूर्ण 20-25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से प्रातः या सांयकाल भुरकें।

मोयला:-

मोयला की रोकथाम हेतु मिथाइल पैराथियॉन 2% मेलाथियान 5% याकार्बेरील 5% चूर्ण 20-25 किलो प्रति हेक्टेयर भुरके अथवा पानी की सुविधा वाले स्थानों में मेलाथियान 50 ई.सी. सवा लीटर या डाइमिथोएट 30 ई.सी. 875  मि.ली. या फार्मेथीयॉन 25 ई.सी.एक लिटर या कार्बोरील 50% घुलनशील चूर्ण ढाई किलो अथवा क्लोरापायरिफॉस 20 ई.सी.600 मि.ली.या एसीफेट 75 एस.पी.का 700 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें, आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन बाद पुनः दोहराये।

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हीरक तितली:-

रोकथाम हेतु 1 लीटर क्यूनॉलफॉस 25 ई.सी. प्रति हेक्टेयर छिड़के।

लीफ माइनर:-

इसकी रोकथाम हेतु क्यूनालफॉस 25 इ.सी.600 से 700 मि.ली. या मिथाइल पेराथियॉन 50 इ.सी. 500 मिली पानी में घोलकर छिलके। जहां यह छिड़काव संभव नहीं हो, वहां मेलाथियान 5% या कार्बेरील 5% मिथाइल पैराथियॉंन 2% चूर्ण 20 से 25 किलो प्रति हेक्टेयर भुरके। आवश्यकता पड़ने पर 21 दिन बाद दूसरा छिड़काव/भुरकाव करें।

आग्या:-

पराश्रयी पौधों का बीज बनने से पहले ही उखाड़कर नष्ट करें तथा रोग रोधक जातियों का प्रयोग करें।

छाछ्या:-

रोग दिखाई देते ही प्रति हेक्टेयर 20 किलो गंधक चूर्ण भुरकें या ढाई किलो घुलनशील गंधक का 0.3% घोल 750 मिली केराथिन का 0.1% पानी में घोल बनाकर छिड़के।

कीट नियंत्रण हेतु पौध संरक्षण:-

फसल को रहित रखने के लिए खड़ी फसल में निम्न प्रकार संरक्षण उपाय (छिड़काव/ भुरकाव) अपनाएं।

प्रथम छिड़काव/ भुरकाव (अंकुरणके 7 से 10 दिन में):-

मिथाइल पैराथियान 2% या मेलाथियॉंन 5% या कार्बेरील 5% चूर्ण 20-25 किलो प्रति हेक्टेयर कि दर से प्रायः भुरके अथवा मेलथियॉंन 50 ई.सी. सवा लीटर या डाइमिथोएट 30 ई.सी.875 मि.ली. या क्लोरोपायरिफॉस 20 ई.सी.600 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में मिलाकर छिड़काव करे।

द्वितीय भुरकाव/छिड़काव:-

दिसंबर के अंतिम सप्ताह में या मोयला दिखाई देते ही उपरोक्तानुसार ही दवाओं का छिड़काव करे।

तृतीय छिड़काव:-

द्वितीय छिड़काव के 15-20 दिन बाद/ फूल आने के पश्चात मिथाइल पेराथीयॉन 2% या मेलाथियान 5% या कार्बोरील 5% चूर्ण 25 किलो प्रति हेक्टेयर भुरकें या मेलार्थीयॉन 50 ई.सी. सवा लीटर या क्लोरापयारीफॉस 20 ई.सी. 600 मि.ली. या कार्बोरील 50% घुलनशील ढाई किलो प्रति हेक्टेयर की दर से प्रकोप दिखाई देते ही छिड़काव करें, आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन बाद छिड़काव दोहराए।

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झुलसा, तुलासीता सफेद रोली:-

इन रोगों के लक्षण दिखाई देते ही डेढ़ किलो मेंकोजेब प्रति हेक्टेयर का 0.2% पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार यह छिड़काव 20 दिन के अंतर पर दोहराए। बुवाई के पहले बीज को एप्रोन 35 एस.डी. 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बोवें।

टिप्पणी:-

  • यदि तीसरे छिड़काव के बाद भी एफिड्स का प्रकोप रहे, तो इसके लिए बताई गई कोई भी एक दवा का छिड़काव या भुरकाव फिर से दोहराएं।
  • एफिड्स एवं छाछिया के अच्छे नियंत्रण हेतु सरसों की हर दस कतारों के बाद चने की दो कतारें बोयें, इससे छिड़काव में सुविधा होगी।
  • फसल को पाले से बचाने हेतु फसल पर गंधक के तेजाब के 0.1% घोल का छिड़काव फूल आने से पूर्व करें। इसे संभावित पड़ने की अवधि में दोहराते रहना चाहिए।

फसल की कटाई:-

सरसों की फसल 120-125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। फसल की कटाई उचित समय पर करना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि देरी से कटाई करने पर फलिया चटक ने लगती है एवं उपज में 5 से 10% तक की कमी आ जाती है। जैसे ही पौधे की पत्तियों एवं फलियों का रंग पीला पड़ने लगे, कटाई कर लेनी चाहिए, कटाई के समय इस बात का विशेष ध्यान रखें कि सत्यानाशी खरपतवार का बीज, फसल के साथ न मिलने पाए, नहीं तो इस फसल के दूषित तेल से मनुष्य में “ड्रॉप्सी” नामक बीमारी हो जाएगी। सरसों में केवल टहनियों को काटकर बंडलों में बांधकर खलियान में पहुंचा दे एवं कुछ दिन तकफसल को सुखाने के पश्चात थ्रेसर से निकाल लेवे। फिर बीज को फर्श पर सुखाने के बाद उचित नमी की आवश्यकता में बोरियों में भरकर भंडारण में पहुंचा देना चाहिए।

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प्रस्तुति:-

धर्मसिंह मीणा, चमन सिंह जादौन,

बलदेव राम, कृषिविश्वविद्यालय, कोटा (राज)

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Vijay Gaderi

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