सर्पगंधा की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक - innovativefarmers.in
उन्नत खेती औषधीय फसलों की खेती

सर्पगंधा की उन्नत खेती एवं उत्पादन तकनीक

सर्पगंधा
Written by Vijay Gaderi

भारतीय उपमहाद्वीप और अफ्रीका के विभिन्न भागों में पाया जाने वाला पादप सर्पगंधा अत्यंत उपयोगी वनौषधि है। भारतीय चिकत्सा विज्ञान के परछाईं ग्रन्थ चरक संहिता में सर्पगंधा के औषधीय गुणों का खूब गुणगान किया गया है। सर्पदंश एवं कीट दंश के उपचार में इसे बहुत लाभकारी बताया गया है।

सर्पगंधा

यह सांप, बीचु, चूहे, मकड़ी के विष के प्रभाव को दूर करने के साथ ज्वर, कृमि तथा व्रण से भी मुक्ति दिलाता है। उच्च रक्तचाप, अनिंद्रा तथा मानसिक विकारों के उपचार में भी यह पौधा सहायक होता है।

परिचय:-

सर्पगंधा का वानस्पतिक नाम “रावॉल्फिया सर्पेटाइना” है। इसे ऑफियोजाइलॉन सर्पोट्रिनम भी कहते है। यह पुष्पीय पौधों के द्वि बीजपत्रीय कुल एपोसाइनेसी का सदस्य है।

विशेषताएं:-

सदाबहार, बहुवर्षीय सर्पगंधा का झाड़ीनुमा पौधा सामान्यतया दो से तीन फुट तक ऊँचा होता है। इस पौधे की पत्तियां प्रायः तीन से छः इंच तक लम्बी होती है और डेढ़ इंच चौड़ी नोकदार होती है। इसकी पत्तियों की बनावट आम और अडूसे से मिलती जुलती है लेकिन छोटे आकार की डण्ठल वाली होती है। इसकी पत्तियों के ऊपरी भाग का रंग गाढ़ा तथा निचले भाग का रंग हल्का होता है।

मेदनी क्षेत्रों में इसकी मंजरियों (दाल के ऊपरी सिरे) पर फूल और फल लगते है। उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में इस पर नवंबर-दिसंबर में सफेद या गुलाबी फूल आते है। इसके फल गुठलीदार, छोटे-छोटे मांसल और आपस में दो-दो की सख्यां में में जुड़े और अकेले भी मिलते है।

इसके हरे फल पकने पर बैंगनी या काले रंग के हो जाते है। सर्पगंधा का शबे ज्यादा उपयोग होने वाला हिस्सा इसकी जड़ है। रोगोपचार में इसकी जड़ का सर्वाधिक प्रयोग करते है। इसकी जड़ जमीन में 18-20 इंच तक गहराई तक होती है।

Read Also:- ब्राह्मी की उन्नत खेती एवं इसका औषधीय महत्व

प्राप्ति क्षेत्र:-

सर्पगंधा उष्णकटिबंधीय हिमालय तथा हिमालय के निचले प्रदेशों में सिक्किम तक पाया जाता है। यह असम, उत्तराखण्ड, शिवालिक की पहाड़ियां, रुहेलखण्ड, उत्तरप्रदेश तथा भारत के पश्चिमी तट के किनारे पर भी पाया जाता है। यह अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में भी पाया जाता है। भारत के बाहर सर्पगंधा दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका में भी पाया जाता है।

जलवायु एवं मृदा:-

सर्पगंधा आम तौर पर जीवांश युक्त अम्लीय बलुई दोमट तथा चिकनी दोमट मृदा जिसका पी.एच. मान 6.5-8.5 के बीच में हो सफलतापूर्वक उगता है। यह आमतौर से उष्ण-कटिबंधीय तथा उप-उष्ण कटिबंधीय जलवायु में पाया जाता है। जहां जून से अगस्त माह के बीच के मानसूनी महीनों में भारी वर्षा होती है।

सर्पगंधा की वृद्धि के लिए 10-38 डिग्री सेल्सियस के बिच का तापक्रम आदर्श होता है। यह वनौषधि आमतौर पर नम तथा छायादार स्थान पसंद करती है। लेकिन जल जमाव के प्रति सवेंदनशील होता है। बहुवर्षी सर्पगंधा की पत्तियां उत्तर भारत में शीत ऋतू में जड़ जाती है।

रासायनिक संगठन:-

सर्पगंधा की जड़ों में 55 से भी ज्यादा क्षार पाए जाते है। इसमें सर्पेन्टीन अधिक प्रभावशाली होता है, यह केन्द्रीय वैट नाड़ी संसथान को उत्तेजित करता है। कुछ क्षारों में शामक तथा निद्राकर गुण होते है। कुछ क्षार ह्रदय रक्त वाहिनी तथा रक्त वाहिनी नियंत्रक केन्द्र के लिए अवसादक होते है। रेसर्पीन क्षार औरो की अपेक्षा अधिक कार्यकारी होता है। यह रक्तचाप को नियंत्रित करता है।

Read Also:- सतावर की उन्नत खेती एवं औषधीय महत्व

प्रमुख औषधीय तत्व:-

सर्पगंधा की जड़ों में क्षारों के अतिरिक्त ओलियोरेसिन, स्टेरॉल, असंतृत्पत  अल्कोहल, ओलिक एसिड ग्लूकोज सुक्रोज, ऑक्सीमिथाइल एन्थ्राक्विनोन एवं खनिज लवण भी पाये जाते है। इन सबसे ओलियोरेसिन कार्यिकी रूप से सक्रिय होता है और ओषधि की शामक कार्यवाही के लिए उत्तरदायी है।

सर्पगंधा का औषधीय उपयोग:-

प्राचीनकाल में सर्पगंधा की जड़ो का उपयोग, विषनाशक के रूप में सर्पदंश एवं कीट दंश के उपचार में होता था। मलेशिया तथा इंडोनेशिया के वनों में निवास करने वाली जनजातियां आज भी सर्पदंश एवं बिच्छू दंश में सर्पगंधा का उपयोग करती है।

इसके अतिरक्त सर्पगंधा निम्न रोगों में प्रयोग करते है। पारम्परिक चिकत्सा पद्धति में सर्पगंधा की जड़ों का उपयोग उच्च रक्तचाप, ज्वर, वातातिसार एवं अतिसार में कुटज के साथ तथा ज्वर में काली मिर्च तथा चिरायता के साथ किया जाता है।

  • जड़ का रस अथवा आरक उच्च रक्तचाप की बहुप्रयुक्त औषधि है।
  • जड़ों के अर्क का प्रयोग हिस्ट्रिया तथा मिर्गी के उपचार में भी होता है। घबराहट तथा पागलपन के उपचार में भी सर्पगंधा का उपयोग किया जाता है।
  • सर्पगंधा से निर्मित ओषधियों का प्रयोग एलोपेथी में तंत्रिका एवं मनोरोग तथा वृद्धवस्था से संबंधित रोग, विषैली कंठमाला, एंजाइना पेक्टोरिस, तथा तीव्र एवं अनियमित ह्रदय गतिविधियां, मासिक धर्म, मोलिनीमिया, रजनोवृति सिंड्रोम के उपचार में भी किया जाता है।
  • आंतरिक रूप से आरक तथा बाह्य रूप से जड़ों तथा पतियों से तैयार प्लास्टर के रूप में यदि तथा पांव में लगाया जाता है।
  • पत्तियों के रस का उपयोग मोतियाबिंद के उपचार में भी होता है।

Read Also:- नागरमोथा की वैज्ञानिक खेती एवं उत्पादन तकनीक

सर्पगंधा के नष्ट होने के कारण:-

पिछले लगभग चार दशक से सर्पगन्धाकेँ निरंतर हास ने इस बहुमूल्य और चमत्कारिक औषधीय पौधे  को संकटग्रस्त पादपों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। सर्पगंधा के हास के अनेक कारणों में अतिशोषण, कमजोर पुनर्जनन क्षमता, बढाती जनसंख्या के कारण कृषि क्षेत्रफल में विस्तार, वन-विनाश, कीटनाशकों एवं खरपतवारों का अंधाधुंध प्रयोग तथा सरलीकरण प्रमुख है।

सर्पगंधा के औषधीय गुण जड़ों में मौजूद होते है, इस लिए जड़ो की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण पौधे को नष्ट करना पड़ता है। क्योंकि पौधे को बगैर नष्ट किये, जड़ों की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। यही कमजोरी सर्पगंधा के हास का प्रमुख कारण है।

सर्पगंधा का संरक्षण:-

भारत में सर्पगंधा जैसे महत्वपूर्ण औषधीय पौधे का संकटग्रस्त होना गंभीर चिंता का विषय है। अतः संपोषित विकास की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए इस अमूल्य सम्पति का संरक्षण आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़िया भी सर्पगंधा से लाभाविन्त हो सके।

Read Also:- कालमेघ की वैज्ञानिक खेती एवं औषधीय महत्व

About the author

Vijay Gaderi

Leave a Reply

%d bloggers like this: