सुवा औषधीय गुणों से भरपूर बीजीय मसाला फसल है। अंग्रेजी में इसे “डील” नाम से जाना जाता है। सुआ की खेती मुख्य रूप से बीज एवं वाष्पशील तेल उत्पादन के लिए की जाती है, जो कि विदेशी मुद्रा अर्जुन का एक प्रमुख स्रोत सुआ के विशिष्ट औषधीय गुण इस में उपस्थित वाष्पशील तेल के कारण होते हैं। इसे सुवा तेल भी कहा जाता है। भारतीय सुवा में 1.5 से 4.0% तक तथा यूरोपियन सुवा में 2.5 से 4.0% तक तेल पाया जाता है।
सुवा का औषधीय उपयोग:-
सुआ पानी का उपयोग बच्चों में अपचन,उल्टी, दस्त के उपचार में बहुतायत से किया जाता है। सुवा का बीज विभिन्न आयुर्वेदिक औषधियों को बनाने में एक प्रमुख अवयव के रूप में प्रयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त इस पौधे के विभिन्न भाग जैसे तना, पत्ती तथा बीजों का उपयोग अचार, सुप, सलाद, परिरक्षित मीट तथा सॉस को सुवासित करने के लिए भी किया जाता है।
भारत में सुवा की खेती:-
भारत में सुवा की खेती मुख्य रूप से गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश में की जाती है। राजस्थान राज्य में चित्तौड़गढ़ प्रतापगढ़ एवं झालावाड़ जिलों में की जाती है।
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सुआ की उन्नत किस्में:-
ए डी-1:-
यह यूरोपियन डील की किस्म है। यह किस्म सिंचित परिस्थितियों में अच्छी पैदावार देती है। जिसमें वाष्प तेल की मात्रा 3.5% पाई जाती हैं।
ए डी-20:-
यह भारतीय सुवा की किस्म में है। यह किस्म बारानी खेती एवं असिंचित तथा कम पानी में भी अच्छी पैदावार देती है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 3.2% पाई जाती है।
जलवायु:-
सुवा की सफल खेती के लिए ठंडी एवं शुष्क जलवायु आवश्यक है। यह पीला के प्रति संवेदनशील है। बीज पकते समय अपेक्षाकृत गर्म तापमान की आवश्यकता होती हैं। नमी की अधिकता होने पर रोगों एवं कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है।
भूमि:-
सुआ की खेती बलुई मिट्टी को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती हैं। अधिक पैदावार के लिए उचित जल निकास एवं जैविक पदार्थयुक्त एवं बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है। भारी भूमि में बारानी या वर्षा आधारित खेती की जा सकती हैं।
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खेत की तैयारी:-
खेत को भलीभांति तैयार करने के लिए 1 जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की 2 से 3 जुताई देशी हल या हेरो चलाकर कर लेना चाहिए।इसके पश्चात पाटा लगा कर मिट्टी को भुरभुरी करके खेत को समतल कर लेवे ताकि नमी का अनावश्यक हास् न हो।
सिंचित क्षेत्र में यदि भूमि में पर्याप्त नमी नहीं हो तो पलेवा करके तैयार करें। यदि दीमक की समस्या हो तो क्यूनोलोफोस 1.5% या मिथाइल पैराथियान 2% चूर्ण को 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में पाटा लगाने से पहले मिला देना चाहिए।
बुवाई का समय:-
बारानी खेती के लिए सुवा की बुवाई अगस्त-सितंबर माह में करनी चाहिए। सिंचित फसल के लिए बीज की बुवाई मध्य अक्टूबर में करनी चाहिए।
बीज दर:-
सुवा की सिंचित फसल के लिए 3.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं बारानी फसल के लिए 5.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है।
बीजोपचार:-
बीज जनित रोगों से बचाव हेतु बुवाई पूर्व २.५-३.५ प्रति किलोग्राम बीज दर से कार्बेन्डाजिम केप्टान या थाइरम से उपचारित करें।
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बुवाई की विधि:-
सुवा की बुवाई हेतु कतार से कतार की दूरी 50 से.मी. एवं कतारों में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसमें बीजों की बुवाई 2.0 से. मी. से अधिक गहराई में नहीं होनी चाहिए। बीजो का अंकुरण लगभग 10 से 12 दिन में हो जाता है। बीजों के अंकुरण के लिए भूमि में उपयुक्त नमी होनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक:-
सुवा की भरपूर पैदावार लेने के लिए बुवाई के 1 माह पूर्व औसतन 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट खेत में अच्छी तरह मिलाये। मृदा में उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण परिणाम के आधार पर करना चाहिए।
सिंचित फसल में 90 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टर दर से आवश्यक है। जबकि बारानी फसल के लिए 40 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टर की दर से आवश्यक है।
नत्रजन की एक तिहाई मात्रा एवं फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा पूर्ण मात्रा खेत में अंतिम जुताई के समय देना चाहिए। नत्रजन की मात्रा को दो बराबर भागों में बांट कर बुवाई के 30 दिन एवं 60 दिन बाद खड़ी फसल में प्रयोग करें।
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सिंचाई:-
सुवा एक लंबे समय में पकने वाली बीजीय मसाला फसल हैं। यदि बुवाई की प्रारंभिक अवस्था में नमी की कमी हो तो बुवाई के तुरंत पश्चात एक हल्की सिंचाई करें। सुबह की फसल में लगभग 3 से 5 की सिंचाई की आवश्यकता होती है। फसल की रक्षा एवं मौसम के अनुसार सिंचाई 15 से 25 दिन के अंतराल पर करें। फसल में फूल आने के समय एवं दाना बनते समय पर्याप्त मात्रा में नमी होनी चाहिए।
निराई गुड़ाई:-
सुवा की अच्छी फसल लेने व खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए दो से तीन निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। पहली निराई-गुड़ाई बुवाई के 30 दिन पश्चात करें तथा साथ ही पौधों की छंटनी कर के पौधों के मध्य पर्याप्त अंतर रखें।
लगभग 1 माह के अंतराल पर दूसरी निराई-गुड़ाई करें। रासायनिक विधि द्वारा खरपतवार नियंत्रण हेतु पेंडीमेथिलीन 0.75-1,0 किग्रा. सक्रिय तत्व या आक्सीडाइ आर्जील 0.075किग्रा. प्रति हेक्टर की दर से बुवाई के बाद अंकुरण से पूर्व 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। छिड़काव के समय खेत में नमी होना अति आवश्यक है।
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सुवा में फसल संरक्षण:-
जड़ गलन रोग:-
जड़ गलन के नियंत्रण हेतु बीज को कार्बेंडाजिम 2 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिए। रोग की रोकथाम हेतु प्रारंभिक अवस्था में गंधक के चूर्ण का 20 से 25 किग्रा. की दर से छिड़काव करें।घुलनशील गंधक 0.2 प्रतिशत या केराथॉन एल.सी.0.1% का प्रति लीटर प्रति हेक्टर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर इस छिड़काव को 15 दिन बाद दोहरावे।
मोइला (एफिड)
मोइला कीट के नियंत्रण हेतु डाइमेथोएट (30 ई.सी.) 1 लीटर का 700 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टर के हिसाब से छिड़काव करें। आवश्यकता पड़ने पर छिड़काव को 15 दिन बाद पुनः दोहरावे। जहां तक संभव हो दवाओं का छिड़काव सायकल में करें ताकि मित्र कीटों को कम से कम नुकसान हो।
कटाई एवं गहाई:-
सुवा की फसल लगभग 130 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। फसल की कटाई दरांती की सहायता से जमीन से 40 से.मी. ऊपर से करनी चाहिए। कटाई के पश्चात फसल को छाया में सुखना चाहिए। पूर्ण रुप से सूखने के पश्चात पक्के फर्श पर छींटकर या डंडों से पीटकर दानों को अलग कर लेवें एवं साफ बोरियों में भरकर भंडारित कर लेवे।
उपज:-
सुवा की औसतन उपज सिंचित अवस्था में 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टर तथा असिंचित अवस्था में 6-7 क्विंटल प्रति हेक्टर प्राप्त की जा सकती है।
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