सोयाबीन एक बहुगुण सम्पन्न दलहनी एवं तिलहनी फसल है। इसमें 40 प्रतिशत प्रोटीन एवं 20 प्रतिशत तेल होता है। आहार की पौष्टिकता बढ़ाने के लिये सोयाबीन तुल्य होत का मिश्रण किया जा सकता है। सोयाबीन से दूध, दही तथा मक्खन बनाया जा के सकता है। इसका दूध रसायनिक विश्लेषण की दृष्टि से गाय दूध के है। यह भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है। तेल निकालने के बाद इसकी खली अच्छी मात्रा में प्रोटीन एवं खनिज तत्व रहते हैं। अतः भूमि में खाद देने और मवेशिय को खिलाने में उपयोगी होती है। एन्टीबायोटिक पैदा करने वाले जीवाणुओं के लिये सोयाबीन एक मनपसन्द भोजन सिद्ध हुआ है। वनस्पति घी बनाने के लिये इसका तेल उपयोगी है। सैन्ट, वार्निश, साबुन, स्याही, रबर, ग्लिसरीन आदि उद्योग में भी इसका तेल काम में आता है।
किस्में एवं उनकी विशेषताएँ:-
जे.एस. 335 (1994):-
यह एक पीले दाने वाली वृहत अनुकूलता, उत्तम अंकुरण क्षमता वाली किस्म है। यह 95-100 दिन में पकने वाली किस्म, 25-30 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है।
एन. आर. सी. 37 (2001):-
पीले दानो वाली, मध्यम ऊंचाई की यह किस्म 90-95 दिन में पककर तैयार होती है। इसके 100 दानों का भार 10 से 13 ग्राम तथा औसत उपज 25-30 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। इस किस्म के विशेष गुणों में सफेद पुष्प फलियों एवं पत्तियों पर हल्के सलेटी रंग के रोये, दाना हल्का पीला, भूरा हायलम, उत्तम अंकुण क्षमता तथा मध्यम ऊंचाई मुख्य है। यह किस्म जीवाणु पत्ती धब्बा, अन्य पत्ती धब्बा रोगों, वायरस रोगों एवं अन्य पत्ती खाने वाले कीड़ों एवं गर्डल बीटल कीट से मध्यम प्रतिरोधी है। इस किस्म में तेल की औसत मात्रा 17-18 प्रतिशत तक पाई गयी है।
जे. एस. 93-05 (2002):-
संकरी पत्ती वाली यह किस्म 85 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मध्यम ऊंचाई यह किस्म जीवाणु पत्ती धब्बा नामक बीमारी से सहनशील है। इसके बैगंनी पुष्प, हल्के पीले रंग के बीज होते है। 100 दानों का भार 10-12 ग्राम तथा औसत उपज 25-30 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। संकरी पत्तियां होने से पत्ती खाने वाले कीड़ों एवं अन्य कीड़ों से यह किस्म मध्यम प्रतिरोधी है।
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प्रताप सोया-1 (2007):-
औसत ऊंचाई वाली यह किस्म 90-95 दिन में पककर तैयार होती है। इसके पुष्प बैगंनी रंग के तथा बीज हल्के पीले रंग के गोलाकार होते है। फलियां नहीं चटकती है। यह किस्म अच्छी अंकुरण क्षमता वाली तथा गर्डल बीटल के प्रति अत्यधिक प्रतिरोधी एवं तम्बाकू ईल्ली और अन्य रोगों से मध्यम प्रतिरोधी है। इसके 100 दानों का भार 11-14 ग्राम है। दानों में तेल व प्रोटीन की मात्रा क्रमश: 18-20 तथा 40-42 प्रतिशत है। इसकी उपज 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टर तक प्राप्त होती है।
आर. के.एस.- 18 (प्रताप सोया-2) (2007):-
यह किस्म उचित परिस्थितियों में 90-95 दिनों में पककर 25-30 क्विंटल प्रति हैक्टर की उपज देती है। इसमें तेल की मात्रा 18-20 प्रतिशत पाई गई है। यह किस्म तम्बाकू इल्ली, गर्डल बीटल तथा अन्य पत्तियां खाने वाली कीटों से मध्यम प्रतिरोधी तथा पत्ती धब्बा रोग एवं अन्य बीमारियां से भी मध्यम प्रतिरोधी पाई गई है।
जे. एस. 71-05 (1985):-
यह एक जल्दी पकने वाली किस्म है जो 85 से 90 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी पैदावार 20 से 24 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। पौधों की ऊँचाई 30 से 40 सें.मी. होती है। फूलों का रंग गुलाबी होता है। यह विषाणु धब्बा रोग रोधक भी है।
प्रताप राज सोया-24 (2011):-
सोयाबीन की यह किस्म 95-97 दिन में पक कर 20-25 क्विटल प्रति हैक्टर की उपज देती है। इस किस्म की अंकुरण क्षमता अन्य किस्मों से अधिक है। इसके दाने चमकीले, पीले, गोल एवं नाभिका हरे भूरे रंग की होती है। यह किस्म पीत शिरा रोग एवं तंबाकू इल्ली कीट से मध्यम प्रतिरोधी है।
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जे. एस. 9560 (2007):-
यह किस्म मध्यम ऊँचाई की अधिक अंकुरण क्षमता, मोटा पीला दाना हल्का भूरा हाइलम, चमकदार पीला तना, पत्तियां एवं फली रोये रहित होती है। यह किस्म 85 से 88 दिन में पककर औसतन 20 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है। यह जड़ सड़न बहुपर्णीय बीमारियों एवं पत्ती रस चूसक कीटों तथा पत्तियों काटने वाले कीटों के लिये सहनशील पाई गई है।
आर. के. एस. 45 (2013):-
यह विश्वविद्यालय द्वारा नवीनतम विकसित किस्म है जिसकी औसत उत्पादकता अच्छी पाई गई है।
खेत की तैयारी:-
सोयाबीन के लिये दोमट मिट्टी सबसे अच्छी रहती है। मटियार भूमि में जहाँ जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो, वहाँ इसकी खेती की जा सकती है। लवणीय, क्षारीय तथा जल भराव वाले खेतों में इसकी खेती नहीं की जानी चाहिये। गर्मी में एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद में देशी हल से दो तीन बार खेत की जुताई कीजिये ताकि भूमि भुरभुरी हो जाये। इसके बाद पाटा चलाकर बुवाई के लिये खेत तैयार कर लें।
बीज उपचार:-
एक हैक्टर क्षेत्र की बुवाई के लिये टी 49 किस्म का 50 किलो बीज पर्याप्त है, जबकि अन्य किस्मों में प्रति हैक्टर 80 से 100 किलो बीज काफी रहता है। बोने से पूर्व बीज को 3 ग्राम थाइरम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. द्वारा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। बीज को सोयाबीन कल्चर से उपचारित करना आवश्यक है। अतः इसके पश्चात् सोयाबीन कल्चर से बीजोपचार करें ।
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बुवाई:-
जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ सोयाबीन की बुवाई 15 जून से 30 जून तक कर दें। जहाँ सिचाई की सुविधा उपलब्ध न हों वहाँ वर्षा प्रारम्भ होते ही बुवाई की जानी चाहिये। कतार से कतार की दूरी 30 सें.मी. रखें। शीघ्र पकने वाली किस्मों में पौधे से पौधे की दूरी 7.5 सें.मी. मध्यम अवधि वाली किस्मों में 10 सें.मी. तथा देर से पकने वाली किस्मों में 12.5 सें.मी. रखनी चाहिये।
उर्वरक:-
कारक (वर्षा, सिचित, असिचित, किस्म, उपयोगिता) | नाइट्रोजन किग्रा / हैक्टर | फास्फोरस किग्रा / हैक्टर | पोटाश किग्रा / हैक्टर | अन्य |
राइजोबिया कल्चर के साथ | 20 | 40 | ||
राइजोबिया कल्चर बिना | 40 | 40 | मिटटी परीक्षण के आधर पर | |
मक्का-गेहूं- सोयाबीन की उत्पादकता बढ़ाने के लिए | निर्धारित नाइट्रोजन व फास्फोरस | 25 किग्रा. ZnSO4 का प्रयोग करें |
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कल्चर से उपचारित बीजों को डी.ए.पी. के साथ कभी नहीं मिलाना चाहिये अन्यथा अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। दलहनी फसलों विशेषकर सोयाबीन में ब्रासनोलायड 20 मि.ली. प्रति 100 लीटर पानी में घोलकर दो छिड़काव क्रमशः फूल आने से पूर्व तथा इसके 20 दिन बाद करने से पौधे की बढ़वार व उपज में वृद्धि होती है।
निराई-गुड़ाई:-
बुवाई के 15-20 दिन पश्चात् अतिरिक्त पौधों को निकालकर पौधे से पौधे की दूरी किस्म के आधार पर कर दें। हल या कुल्फा चलाकर पहली निराई-गुड़ाई 25 से 30 दिन की अवस्था पर करें तथा आवश्यकतानुसार दूसरी निराई-गुड़ाई 40-45 दिन की अवस्था पर करें। खरपतवार नाशी रसायन के द्वारा भी सोयाबीन की फसल में खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिये प्रति हैक्टर 750 ग्राम फ्लूक्लोरेलिन सक्रिय तत्व बुवाई के एक दिन पहले 500 से 600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें और हल्की जुताई कर मिट्टी में मिला दें अथवा एलाक्लोर 2 किलो या मेटालाक्लोर 1.0 किलो ग्राम या पेण्डीमिथेलिन 0.75 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर 600 लीटर पानी में घोल कर बुवाई के पश्चात् एवं अंकुरण के पहले छिड़काव करें।
सोयाबीन की खड़ी फसल में खरपतवार नियंत्रण हेतु अंकुरण के 15-20 दिन के पश्चात् इमेजाथाइपर 100 ग्राम 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें। सोयाबीन में घास वाले खरपतवारों के नियंत्रण हेतु क्विजॉलफोप-एथिल 50 ग्राम प्रति हैक्टर को बुवाई के 15 से 20 दिन के अन्दर छिड़कें। सिंचाई सोयाबीन की फसल को वैसे तो बिना सिंचाई के ही उगाया जाता है, किन्तु फूल व फलियाँ बनने के समय पानी की कमी बिल्कुल नहीं होने देना चाहिये। अतः उस समय वर्षा न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो सिंचाई करनी चाहिये।
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फसल संरक्षण:-
कीट एवं उनका नियंत्रण:-
फड़का:-
सोयाबीन के उगते ही 5-7 दिन में फड़के का प्रकोप शुरू हो जाता है। इसका प्रजनन खेतों की डोलियों पर उगी घास में होता रहता है। ये जमीन की सतह पर फुदकते हुए फसल की नयी पत्तियों को काटने लगते हैं और अधिक प्रकोप होने पर मिथाइल पैराथियोंन 2 प्रतिशत या मैलाथियॉन 5 प्रतिशत 25 किलो प्रति हैक्टर का भुरकाव करना चाहिये। ध्यान रहे कि खेत की डोलियों पर 7 से 10 दिन के उपरान्त दुबारा भुरकाव करना आवश्यक है।
तना छेदक व पर्ण खनक:-
तना छेदक व पत्ती छेदक एक ही प्रवर्ग के कीट हैं। इनके वयस्क एक विशेष प्रकार की छोटी मक्खी होती है। तना मक्खी पौधे के तनों व कोमल टहनी के जोड़ पर ऊपरी छाल की सतह के नीचे अण्डा देती है। इनमें से 3-5 दिन में लटें निकलते ही कोमल टहनी के बीच का गूदा खाने लगती है, जिससे टहनी मुरझाकर सूख जाती है।
पर्ण खनक छेदक के अण्डे पत्ती की ऊपरी सतह के नीचे दिये जाते हैं, इनमें से 3-5 दिन में लटें निकलने पर पत्ती की दोनों सतहों के बीच में सुरंगे बना लेती है। हर सुरंग में एक छोटी सी लट होती है, सुरंग बनने से प्रकाश संश्लेषण क्रिया कम हो जाती है, जिससे पैदावार कम होती है। उपरोक्त दोनों कीटों की रोकथाम हेतु प्रति हैक्टर फैन्थियान या लेबासिड या क्यूनालफॉस 500-700 मि.ली. या मिथाइल पैराथियॉन 50 ई.सी. 300-500 मि.ली. को 500-700 लीटर या ट्राईएजाफॉस 40 ई.सी. एक लीटर पानी में घोलकर फसल पर अच्छी प्रकार से छिड़काव करें और आवश्यकता हो तो तीन सप्ताह बाद पुनः छिड़कें।
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फुदके (जैसिड्स):-
सोयाबीन की फसल में फुदके अथवा तैला बहुत नुकसान करते हैं ये छोटे-छोटे कीट (3-5 मि.मि.) पत्तियों का रस चूसते हैं, जिससे पत्तियाँ पीली पड़कर सूख जाती हैं और पैदावार प्रभावित होती है। ये कीट विषाणु रोग (वायरस) को फैलने में भी मदद करते हैं। इनका प्रकोप फसल के पूरे समय में ही होता रहता है, किन्तु उगने के तीन सप्ताह के बाद से फली आने तक अधिक होता है।
इन कीटों की रोकथाम हेतु संस्थापिक कीटनाशक दवाई अधिक उपयोगी रहती है। डाइमेथोएट 30 ई.सी. या मिथाइल डिमेटोन 25 ई.सी. अथवा फारमेथियान 400-600 मि.ली. दवा को 400-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से इनकी रोकथाम की जा सकती है। आवश्यकता पड़ने पर 3 सप्ताह बाद दुबारा छिड़काव करें।
गर्डल बीटल:-
यह इस फसल का मुख्य हानिकारक कीट है। भुंग अथवा बीटल प्रवर्ग के इस कीट का वयस्क करीबन 10-12 मि.मी. चौड़ा, लाल व काले रंग क कड़े पंख का होता है। अन्य भृंग की तुलना में यह कीट बहुत तेज उड़ता है ज 25-30 दिन की सोयाबीन या ढेंचा की फसल पर देखे जा सकते हैं।
अनुमानतः 25-30 दिन की फसल पर वयस्क मादा पौधों की पत्तियों के डण्डल पर एक से डेढ़ सें.मी. के फासले पर दो कुण्डलियाँ घेरे (गर्डल) बनाती है। इस गर्डलों के बीच में मादा वयस्क एक-एक अण्डा देती है। अण्डों के 5-6 दिन में पी हो जाने पर इसमें से डेढ़ से दो मि.मी. लम्बी छोटी-सी हल्के पीले रंग की ल निकलती है जो डण्ठल के अन्दर का गूदा खाती हुई तने की तरफ जाती है औ अन्त में तने में प्रवेश कर जाती हैं। इस प्रकार शाखाओं पर भी गर्डल बना कर अण् दिये जाते हैं और प्रकोप बढ़ जाता है।
इसकी पूर्ण विकसित लटें करीबन 2-3 सें.मी. लम्बी तथा 4-5 मि.मी. मोटी गह पीले रंग की होती हैं। ये तने के गूदे को खाकर खोखला कर देती हैं। बाद में लटें जमीन में अथवा तने में ही शंकु ( प्यूपा) बनाती हैं, जिसमें से वयस्क निकला रहते हैं। गर्डल बीटल 20-30 प्रतिशत तक पैदावार में कमी करती है। जल्दी बो गई फसल पर इसका प्रकोप ज्यादा होता है। इसकी रोकथाम के लिये 30-35 दिन पर ही फसल पर फैन्थियॉन अथव डायमेथोएट 30 ई.सी. एक लीटर या मोनोक्रोटोफास 36 एस.एल. एक लीटर ऐसिफेट 75 एस.पी. 500 ग्राम को पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये तथा सप्ताह बाद दुबारा छिड़काव करें।
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सोयाबीन की फसल में गर्डल बीटल के प्रबंधन हेतु:-
बुवाई के बाद 35 दिन प मोनोक्रोटोफॉस, 50 दिन पर निम्बोली का 5 प्रतिशत अर्क एवं 65 दिन प मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. एक लीटर प्रति हैक्टर छिडकें । सोयाबीन में तना एवं पत्ती छेदक एवं गर्डल बीटल नियंत्रण के लिए अन्न कीटनाशकों के अलावा ट्राइएजोफॉस 40 ई.सी. एक लीटर / हैक्टर छिड़कें।
सोयाबीन में तम्बाकू इल्ली, सेमीलूपर की रोकथाम के लिये:-
30 दिन की अवस्थ से एसीफेट 75 एस. पी. एक ग्राम प्रति लीटर, क्यूनालफॉस 25 ई.सी. दो मिलीलीट प्रति लीटर व ट्राइएजोफॉस 40 ई.सी. एक मिलीलीटर प्रति लीटर का 20-20 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें। इस तरह के तीन छिड़काव से तम्बाकू इल्ली साथ-साथ फसल में लगने वाले अन्य हानिकारक कीटों की भी रोकथाम हो जाती है इनके नियंत्रण हेतु 10 से 11 ग्राम इमामेक्टीन बैन्जोएट 5 एस. सी. के सक्रिय तत्व या 50 से 60 मि.ली. इन्डोक्साकार्ब 14.5 एस. सी. के सक्रिय तत्व या 750 ग्राम थायोडिकार्ब 75 डब्ल्यू.पी. के सक्रिय तत्व, या प्रोफेनोफॉस 50 ई.सी. 1.25 लीटर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें।
बालों वाली लटें:-
पत्ती लगने के समय काली, लाल व भूरे रंग की बालों वाली लटें पत्तियों के हरे भाग को खाकर पत्तियों को छलनी कर देती है, केवल पत्तियों की नसों का जाला दिखाई पड़ता है। आरम्भ में इनका प्रकोप एक दो स्थानों पर केन्द्रित रहता है जहाँ पर वयस्क मादा 500-600 अण्डे देती है। बाद में ये लटें चारों तरफ फैल जाती है और आकार में बढ़ती हुई पत्तियों को खाती रहती हैं, जिनका प्रभाव पैदावार पर पड़ता है।
शुरू में इसका प्रकोप कुछ स्थानों पर होता है, पत्तियाँ सफेद तथा नसें दूर से दिखाई देती हैं, ऐसे पौधे को अण्डों व लटों सहित निकाल कर नष्ट कर दें अथवा इसी समय कीटनाशकों का भुरकाव व छिड़काव करें। इसकी रोकथाम के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियॉन 2 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो प्रति हेक्टर भुरकाव करें।
रेनीफार्म सूत्र कर्मी:-
सोयाबीन में रेनीफॉर्म सूत्रकृमि के प्रबन्धन के लिए पेसीलियोमाइसिस लिलासिनस नामक जीवाणु को 2.5 किग्रा /हैक्टेयर की दर से मृदा में बुवाई के समय प्रयोग करें।
बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण:-
पीलिया रोग:-
फसल में जब भी पीलापन दिखाई दे तभी 0.1 प्रतिशत गंधक के तेजाब या 0.5 प्रतिशत फैरस सल्फेट (हरा कसीस) का छिड़काव करें। सोयाबीन की फसल में अंकुरण से 4-5 पत्ती की अवस्था तक करीबन 10-15 प्रतिशत पौधे मरण अवस्था में पहुँच जाते हैं जिससे पौधों की प्रति इकाई संख्या कम हो जाती है। इसके नियंत्रण हेतु बीज उपचार करना आवश्यक है। बीजोपचार से बीज सतह पर लगी फफूंद का विनाश होता है तथा भूमि में रहने वाले रोगाणुओं से जो अंकुरण में बाधा डालते हैं की रोकथाम होती है और अंकुरण क्षमता भी बढ़ती है।
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जीवाणु रोग:-
यह रोग पीली किस्म की जातियों में अधिक होता है इसमें पत्तियों पर हल्के भूरे रंग के पश्चूल्स् (दाग) बन जाते हैं। यह सामान्यतः 40 दिन की फसल पर आता है। यदि वातावरण में अधिक आर्द्रता हो तो अधिक बढ़ता है। रोग अधिक होने पर रोगग्रस्त पत्तियाँ गिर जाती हैं। इसकी रोकथाम हेतु 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन को 10 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये। एक हैक्टर क्षेत्र के लिये 20 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन दवा की आवश्यकता होती है। यदि जरूरी हो तो दूसरा छिड़काव 15 दिन बाद करें। यह रोग पंजाब-1, एम.ए.सी.एस. 13 और मोनेटा में अधिक लगता है। इन प्रजातियों पर 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन + 20 ग्राम कॉपर आक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत का 10 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़कना अधिक प्रभावी रहता है।
विषाणु रोग:-
सोयाबीन पर विभिन्न प्रकार के विषाणु रोग का प्रकोप होता है। जिसमें मूंग मोजेक, चंवला मोजेक, सोयाबीन मोजेक, बीन मोजेक, मीन पौड मोरल मोजेक इत्यादि मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त इस पर आलू, टमाटर, तम्बाकू आदि अन्य फसलों के विषाणु (वायरस) भी आक्रमण करते हैं। इन रोगों से पौधे की बढ़वार कम होती है। पौधे छोटे रह जाते हैं। रोग ग्रसित पौधों की पत्तियों की नसें साफ दिखाई देने लगती हैं। उनका नरमपन कम होना, बदशक्ल होना, ऐंठ जाना, सिकुड़ जाना इत्यादि लक्षण हैं। कभी-कभी पत्तियाँ भी खुरदरी हो जाती हैं, मोटापन लिये गहरा हरा रंग धारण कर लेती हैं और सलवट पड़ जाती हैं। ये लक्षण 30-40 दिन की फसल पर कुछ पौधों पर प्रकट होते हैं और धीरे-धीरे बढ़कर भयंकर रूप धारण कर लेते हैं। बीज के निरोग न होने पर यह लक्षण 10 दिन की फसल पर प्रकट हो जाते हैं व अंकुरण क भी प्रभावित करते हैं।
रोकथाम हेतु यदि खेत में कुछ ही पौधे रोगग्रसित हो तो उन्हें उखाड़कर जलान चाहिये। यह रोग कीटों द्वारा एक पौधे से दूसरे पौधे पर और एक खेत से दूसरे मिथाइल फैलाये जाते हैं। इसलिये इनकी रोकथाम, रोग फैलाने वाले छोटे-छोटे कीटों के मारकर की जाती है। रोग आते ही फसल पर डाईमीथोएट ई.सी. या डिमेटोन 25 ई.सी. 500-600 मि.ली. दवा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर छिड़काव करना चाहिये और 15 दिन बाद दुबारा करना चाहिये। घोल में स्टीकर या टीपोल ए.जी. मिलाकर करना अधिक लाभदायक है।
पत्ती धब्बा रोग:-
पत्तियों पर हल्के भूरे से गहरे रंग के धब्बे 30-40 दिन बा विभिन्न फफूंदों द्वारा जैसे सरकोस्पोरा, कोलेटोट्राईकम, फाइटोप्थोरा इत्यादि से ह जाते हैं। ये धब्बे पहले छोटे प्रकार के होते हैं और बाद में वातावरण में नमी के कारण बढ़ते जाते हैं। इनकी रोकथाम हेतु मैन्कोजेब के 0.2 प्रतिशत घोल क छिड़काव करना चाहिये। ये रोग क्षेत्र की गम्भीर बीमारी नहीं है।
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माइक्रोप्लाज्मा रोग :-
यह रोग सूक्ष्मजीव जो जीवाणु से छोटे होते हैं, द्वारा होता है। इससे पौधा छोटा रह जाता है तने पर अधिक कलियां बन जाती है जगह-जगह पर फुटान हो जाती है, फलियां कम लगती है और छोटी रह जाती हैं। यह रोग छोटे-छोटे कीड़ों द्वारा फैलाया जाता है। इसकी रोकथाम हेतु डाइमिथोएट 30 ई.सी. या मिथाइल डिमेटोन 25 ई.सी. की 500 मि.ली. दवा को 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये। यह बीमारी इस क्षेत्र में नई है और गौरव जाति में पाई जाती है।
तना गलन:-
यह रोग राइजोक्टोनिया नाम के फफूंद से होता है। इनमें तने पर भूरे व काले रंग के दा जमीन से 10 से 15 से.मी. ऊपर बन जाते हैं. धीरे-धीरे पौधा सूखने लगता है, अगर खेत में कुछ ही ग्रसित पौधे हों तो उनको उखाड़कर जला देना चाहिए। अगले साल उस खेत में सोयाबीन की बुवाई नहीं करें। फसल पर मैन्कोजेब डेढ़ से दो किलो दवा का 600-700 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
जड़ गलन:-
सोयाबीन फसल की प्रारम्भिक अवस्था में जड़ गलन रोग की रोकथाम हेतु 6 – 8 ग्राम ट्राइकोडरमा प्रति कि.ग्रा. बीज दर से बीजोपचार कर बुवाई करें। कटाई : पत्तियों का रंग पीला होने पर फसल को काट लेना चाहिए।
कटाई:-
पत्तियों का रंग पीला होने पर फसल को काट लेना चाहिए।
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