विश्व में उगाए जाने वाले फलों में स्ट्रॉबेरी एक मनमोहक एवं नाजुक फल है। यह शीतोष्ण जलवायु की फसल हैं। विश्व भर में स्ट्रॉबेरी का लगभग 60 प्रतिशत उत्पादन यूरोप में एवं 30% उत्तरी अमेरिका में ही हो रहा है। भारत के शीतोष्ण जलवायु क्षेत्रों के अतिरिक्त स्ट्रॉबेरी की खेती उपोष्ण एवं उष्ण क्षेत्रों में की जा रही हैं।भारत में शिमला, सोलन, पालमपुर, धर्मशाला, ज्वालामुखी, कटरांई, मंडी (हिमाचल प्रदेश), कुमायूं, गढ़वाल, सहारनपुर, देहरादून (उत्तराखंड), मेरठ, गाजियाबाद, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), होशियारपुर, गुरदासपुर, लुधियाना, पटियाला (पंजाब), गुड़गांव, हिसार, करनाल (हरियाणा), तमिलनाडु एवं कर्नाटक के पहाड़ी क्षेत्रों एवं महाबलेश्वर पुणे (महाराष्ट्र) आदि क्षेत्रों में स्ट्राबेरी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
स्ट्रॉबेरी के ताजे फल विटामिन एवं खनिज पदार्थों (कैल्शियम, पोटेशियम एवं फास्फोरस) के अच्छे स्रोत होते हैं। पेक्टिन (0.5 प्रतिशत) की अच्छी मात्रा प्राप्त होने के कारण ही स्ट्रॉबेरी से ‘जेली’ बनाई जाती है।पके फल आकर्षक, सुंदर व लाल रंग के होते हैं। उनसे विशेष आकर्षक एवं मधुर सुगंध आती हैं और अधिकांश लोग इसके आकर्षक रंग एवं सुगंध के कारण ही इसे पसंद करते हैं।
स्ट्रॉबेरी की फल फल खट्टे- मीठे स्वाद वाले होते हैं। अधिकतर फल ताजे ही खाए जाते हैं, परंतु यह कई अन्य बहुमूल्य पदार्थों, जैसे जैम, जेली, शराब, मधुर पेय एवं आइसक्रीम बनाने में भी प्रयोग किए जा सकते हैं।
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यह समझा जाता है कि आधुनिक स्ट्रॉबेरी (फरेगेरिया ऐनानाशा) दो अमरीकी प्रजातियों फरेगेरिया चाइलेंसिस एवं फरेगेरिया वर्जीनियाना के संक्रमण से उत्पन्न हुआ फल है। वर्तमान स्ट्रॉबेरी नाम का विकास श्रंखलाबद्ध तरीके से इंग्लैंड में ही हुआ। एंग्लो- सेक्सोन, स्ट्रॉबेरी को ‘हेबेरी’ कहते थे, क्योंकि इसके पकने का समय सुखाने हेतु घास काटने के समय से मिलता था।
कुछ लोगों की परिकल्पना है कि इस फल का नाम स्ट्रॉबेरी इसलिए पड़ा क्योंकि इसके फलों को घास- फूस पर रख कर बेचा जाता था, जो कि अभी भी आयरलैंड में प्रचलित है। भारत में 19वीं शताब्दी के दशक में स्ट्रॉबेरी के पौधे राष्ट्रीय पादप आनुवांशिकी ब्यूरों के फगली, शिमला (हिमाचल प्रदेश) स्थित केंद्र में लाए गए। वहां से यह धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गई। अब यह भारत की विभिन्न प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक उगाई जा रही है।
भूमि एवं जलवायु:-
स्ट्रॉबेरी अनेक प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है। इसकी जड़ें रेशेदार होती है एवं यह मिट्टी की ऊपरी परत में 25 से 30 सेमी तक ही सीमित रहती है। अतः झरझरी, रेतीली मिट्टी जिसमें अधिक से अधिकाअधिक मात्रा हो, स्ट्रॉबेरी की व्यवसाय खेती के उद्देश्य से अति उत्तम पाई गई हैं। हालांकि ऐसी मिट्टी में बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। भारी मिट्टी में जड़ों का फैलाव नहीं हो पाता है, जिससे पौधे की बढ़वार, उत्पादन एवं उपज पर बुरा असर पड़ता है। स्ट्रॉबेरी की सफल खेती के लिए मिट्टी में जल निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
स्ट्रॉबेरी मुख्यतया शीतोष्ण जलवायु का पौधा है, परंतु इसे विभिन्न जलवायविक दशाओं में उगाया जा सकता है। साधारणतया स्ट्रॉबेरी के पौधे की वृद्धि के लिए जड़ों को निम्न तापमान की आवश्यकता होती है तथा फूलने के लिए बसंत ऋतु की साधारण गर्मी की की। स्ट्रॉबेरी पर विभिन्न जलवायु कारकों में से तापमान एवं धुप का सबसे अधिक प्रभाव होता है।
दिन का तापमान 22-23 डिग्री सेल्सियस पौधे की बढ़वार एवं अच्छे उत्पादन हेतु अति उत्तम पाया गया है। स्ट्रॉबेरी के पौधे एवं फूलों पर पौधों पर पाले का अत्यधिक असर पड़ता है। अतः जाड़े के मौसम में पौधों को पाले से बचाना अति आवश्यक है।
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प्रमुख किस्में:-
चांदलर:-
यह किस्म उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में यह बहुत ही लोकप्रिय किस्म हैं। इसके पौधे ओजस्वी एवं फैलावदार होते हैं। फल बड़े आकार (15 से 20 ग्राम) एवं अच्छे आकर्षक लाल रंग के होते हैं।
फर्न:-
इसके पौधे ओजस्वी परंतु सीधी बढ़वार वाले होते हैं। फल बड़े-बड़े (15 से 18 ग्राम) शंक्वाकार होते हैं। गुदा बहुत अच्छी सुगंध के साथ दृढ़ होता है। यह ताजे फल एवं प्रसंस्करण दोनों उद्देश्यों के लिए उत्तम किस्म है।
पजारो:-
इसके फल एक समान आकार, आकर्षक लाल एवं दृढ़ होते हैं। यह अधिक उत्पादन देने वाली की अगेती किस्म है। यह अधिक उत्पादन देने वाली अति अगेती किस्म हैं। यह फल सड़न, पत्ता झुलसा तथा म्लानि (विल्ट) आदि रोगों की प्रतिरोधी किस्म है।
केमरोजा:-
फल बड़े, मध्यम देर से पकने वाले होते हैं, जिनमे गुदा दृढ़ तथा छिलका रगड़ (आघात) प्रतिरोधी होता है। फल आकर्षक तथा चपटे प्रकार के होते हैं। फलों का ब्राहा रंग चमकीला लाल, गुदा ठोस व हल्के लाल रंग सहित मंद तथा सुहावनी सुगंध वाला होता है। यह जड़ सड़न, म्लानि (विल्ट), पत्ती धब्बा तथा सफेद चूर्णी आदि रोगों के लिए अर्द्धप्रतिरोधी हैं।
सेल्वा:-
यह किस्म मैदानी क्षेत्रों में भी अच्छी पैदावार देती है। इस किस्म के पौधे मध्यम बढ़वार वाले होते हैं, जो मध्यम आकार व मध्यम गठन वाले फल पैदा करते हैं।
स्वीट चार्ली:-
पौधे गठे हुए, छोटे तथा अच्छी भूस्तारी पैदा करने वाले होते हैं। फल बड़े (औसत भार 17 ग्राम) जिनका ब्राहा रंग सफेद नारंगी लाल तथा गूदे का रंग सफ़ेद नारंगी होता है।
डॉग्लास:-
इसका पौधा छोटा होता हैं व फैलाव में बढ़ता है। यह देरी से पकने वाली किस्म हैं, जिसके फल मध्यम आकार, मिठास एवं मध्यम सुगंध के होते हैं।
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पादप प्रवर्धन एवं रोपण:-
स्ट्रॉबेरी का प्रवर्धन मुख्यतः ‘भूस्तारी’ द्वारा किया जाता है। इसके मुख्य तने से भूस्तारी निकलते हैं। इन्ही भूस्तरीयों पर गांठे एवं सुषुप्त कलिकाएं होती हैं। गठन जमीन के संपर्क में आने पर जड़े पैदा कर देती हैं, जिससे एक नया पौधा बन जाता है। प्रवर्धन हेतु मनचाही किस्म के पौधों को अलग से खेत में लगा देना चाहिए। इन पौधों से निकलने वाले फूलों को निकाल देना चाहिए। हमारे देश में भूस्तारी द्वारा पौधे केवल पहाड़ी क्षेत्रों में ही तैयार किए जाते हैं, क्योंकि मैदानी क्षेत्रों में अधिक गर्मी के कारण पौधे मर जाते हैं।
रोपण:-
स्ट्रॉबेरी में पौध रोपण हेतु निम्न विधियां प्रयोग में लाई जाती है।
एक पंक्ति विधि:-
इस विधि को हल्की भूमि में अपनाते हैं। इसमें पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15- 30 सेमी में पौधे से पौधे की दूरी 15 से 20 सेमी रखते हैं। रोपण उठी क्यारियों में करते हैं।
चटाई विधि:-
इस विधि में मातृ पौधों से उसी पंक्ति में भूस्तारी बढ़ने दिए जाते हैं, जो बाद में चटाई का रूप धारण कर लेते हैं। इस विधि में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सेमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 45 सेमी रखते हैं।
क्यारी विधि:-
इस विधि में बाग को 3.5 से 4.0 मीटर चौड़ी समतल क्यारियों में लगाया जाता है। पौधे पंक्तियों में 30 से 40 सेमी तथा 15 से 20 सेमी की दूरी पर लगाए जाते हैं। पानी की उचित सुविधा की स्थिति में क्यारियों को 10 से 15 सेमी उठी हुई बनाना चाहिए।
पौधों को न तो अधिक गहरा और ना ही अधिक उथला लगाना चाहिए। लगाने के बाद चारों तरफ की मिट्टी अच्छी तरह दबा देनी चाहिए। रोपण का कार्य अक्टूबर के अंत या नवंबर के प्रथम सप्ताह में करना चाहिए। पौधों की कायिक वृद्धि एवं उपज बढ़ाने हेतु पौधों पर जिब्रेलिक अम्ल (75 पीपीएम) का छिड़काव करे, प्रकाश अवधि बढ़ाने अथवा क्यारियों के ऊपर 400 गेज मोटी अल्काथीन का लॉन्च क्लॉच का प्रयोग लाभकारी रहता है।
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खाद एवं पानी की व्यवस्था:-
स्ट्रॉबेरी को अधिक खाद की आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी भूमि में खाद डालने से पूर्व मृदा प्रशिक्षण कराना ठीक रहता है। यदि यह सुविधा उपलब्ध न हो, ऐसी मिट्टी जो उर्वर नहीं है, उसमें 80 किग्रा नाइट्रोजन एवं 40 किग्रा. फास्फोरस एवं 40 किग्रा पोटाश देनी चाहिए। चूँकि स्ट्रॉबेरी की जड़े उथली होती है, इसलिए बार-बार पानी की आवश्यकता पड़ती है।
पानी की कमी से फलों के उत्पादन एवं गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। गर्मियों में सप्ताह में कम से कम 2 बार एवं सर्दियों में 10 से 15 दिनों में संचाई अवश्य करें। विदेशों में स्ट्रॉबेरी की खेती हेतु सिंचाई की ड्रिप प्रणाली उपयोग में लायी जाती हैं। हमारे देश के अधिकतर स्ट्रॉबेरी उत्पादक भी ड्रिप प्रणाली का लाभ ले रहे हैं।
देखभाल:-
स्ट्रॉबेरी के खेतों में निरंतर निराई- गुड़ाई करते रहना चाहिए, जिससे खरपतवार ना उग पाए। स्ट्रॉबेरी की क्यारियों को सूखी घास या काले या सफेद रंग की प्लास्टिक से ठकने से विशेष लाभ होता है। उचित पलवार के प्रयोग से भूमि का तापमान, नमी एवं खरपतवार नियंत्रण में रहते हैं। इसके अतिरिक्त फलों को पाले और सड़ने से भी बचाया जा सकता है।
पौधों पर फूल आने से पहले भूस्तारी निकल आते हैं, जिन्हें तुरंत हटा देना चाहिए, अन्यथा पौधों के फलन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। स्ट्रॉबेरी का पौधा 6 महीने से कम समय में फल देना शुरू कर देता हैं और एक पौधे से औसतन तीन वर्ष तक फल लिए जा सकते हैं। 3 वर्ष से अधिक समय क्यारियों में पुनः पौध रोपण करना चाहिए। उष्ण जलवायु क्षेत्रों में पौधे प्रत्येक वर्ष लगाने चाहिए, क्योंकि फल लेने के बाद पौधों को सूर्य की गर्मी से बचाना मुश्किल हो जाता है।
कटुआ किट, रोंएदार इल्ली, लाल स्पाइडर माइट आदि कीट एवं फल सड़न व गलन, विल्ट एवं रेड स्टीली जड़ सड़न व कुछ पक्षी काफी क्षति पहुंचाते हैं, जिनसे रक्षा करने पर प्रति पौधे से औसतन 200-250 ग्राम फल मिल जाते हैं।
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कार्यिकी विकारों की बढ़ती समस्या:-
हालांकि स्ट्रॉबेरी मुख्यतः शीतोष्ण जलवायु का फल हैं परन्तु कई दिवस निष्प्रभावी किस्मों के विकास व आधुनिक तरीकों में मानकीकरण से अब इसे उष्ण जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जाता है। यही कारण है कि भारत के मैदानी क्षेत्रफल एवं उत्पादन में लगातार वृद्धि होती जा रही है। परंतु जहां एक और उत्पादन तकनीकों का मानकीकरण हुआ वहीं दूसरी ओर उत्पादन को प्रभावित करने वाले कई समस्याओं ने भी जन्म लिया हैं।
उदाहरण अभी हाल ही के वर्षों में स्ट्रॉबेरी के फलों में ‘रंजकहीनता’ फलों का ‘कुरचना’ एवं ‘बटनी फल’ कार्यकी विकार पाए गए। इन विकारों के कारण प्रति पौधा फलों का उत्पादन प्रभावित होता है, जिससे किसान की आमदनी प्रभावित होती है। इन विकारों के कारण लक्षण एवं समाधान आदि के बारे में जानकारी निम्नलिखित है।
रंजकहीन फल:-
रंजकहीनता विदेशों में यह विकार मुख्यता ‘ग्रीनहाउस’ में लगाई जाने वाली स्ट्रोबेरी में पाया जाता है। अब भारत में भी यह विकार पाया जाने लगा है। इस विकार में फल आकार में सामान्य फलो जैसे होते हैं, परंतु उनमें आकर्षक लाल रंग नहीं आ पाता है। ऐसे फल खट्टे होते हैं एवं भंडारण में जल्दी ही क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। बाजार में ऐसे फलों को बेचना काफी कठिन होता है।
रंजकहीनता के कारण
स्ट्रॉबेरी में रंजकहीनता फलों का उत्पादन निम्न कारणों से होता है:-
- जब फलों की सघनता अत्यधिक हो।
- स्ट्रॉबेरी की खेती हरितगृह में की जा रही हो।
- जब खेतों में नत्रजनधारी उर्वरकों का प्रयोग आवश्यकता से अधिक किया जाए।
- यह विकार एलसेंटा, डॉसलेक्ट, इरोज, आइडिया, चॉदलर व एटना में अधिक होता है व अन्य में कम।
- जब मिट्टी रेतीली हो, उसका पीएच मान कम हो व उसमें फास्फोरस और पोटाश की अधिकता हो।
- जब क्यारियों में काली पॉलिथीन का पलवार के रूप में प्रयोग हो।
रंजकहीनता कम करने के उपाय:-
स्ट्रोबेरी में रंजकहीनता को निम्न तरीकों से कम किया जा सकता है:-
- स्ट्रॉबेरी की खेती हेतु स्वीट चार्ली, केमरोजा, सीस्केप, डॉग्लास आदि किस्मों को लगाएं।
- स्ट्रॉबेरी को घना न लगाए। हमारे देश में स्ट्रॉबेरी को 25×30 सेमी. की दुरी पर उठी हुई क्यारियों में लगाना चाहिए।
- क्यारियों के बीच 1 से 5 फुट की दुरी रखे।
- पलवारन हेतु पुआल का प्रयोग करें। यदि सिंचाई की ड्रिप प्रणाली की सुविधा हो, तो पलवार हेतु प्लास्टिक की काली पट्टी का प्रयोग करें अन्यथा नहीं।
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बेरुपी फल:-
हाल ही के वर्षों में स्ट्रोबेरी में फलों की खुरचना (बेरूपीपन) विकार पाया जाने लगा है। यह विकार लगभग प्रत्येक किस्म में पाया जाता है। इस विकार में फल बेरुपी हो जाते हैं तथा उनकी शक्ल बिगड़ जाती है।
बेरुपीपन के कारण
स्ट्रॉबेरी में फलों की बेरूपता के निम्न कारण हो सकते हैं:-
- जब पौधों की किसी न किसी कारण अधिकाधिक बढ़वार हो (जैसे अधिक नत्रजनधारी उर्वरकों का प्रयोग आदि) ।
- जब किसी कारणवश फलों के परागकोष, परागकण या अंडाशय को कीटों या मौसम के विशेष कारको द्वारा क्षतिग्रस्त कर दिया जाए।
- बोरोन की कमी से।
- किसी कारण फलों का पूर्णतः परागित न हो पाना।
बेरुपी फलों का उत्पादन कम करने के उपाय:-
स्ट्रॉबेरी के फलों में बेरूपता को निम्न उपायों से कम किया जा सकता है:-
- उपयुक्त प्रागण किस्में लगाएं।
- पौधों में उचित परागण हेतु पुष्पन के दौरान प्रति हेक्टेयर कम से कम 8 से 10 छत्ते मधुमक्खियों के अवश्य रखें।
- नत्रजनधारी उर्वरकों के अधिक प्रयोग से बचें।
- फरवरी में (फूल आने से पहले) बोरेक्स (2%) का छिड़काव करें।
- जिब्रेलिक अम्ल (75 पीपीएम) का मध्य नवम्बर एवं मध्य फरवरी में एक छिड़काव करें।
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बटनी फल:-
यह फल भी एक प्रकार के बेरुपी फल ही होते हैं, क्योंकि इनका आकार बहुत छोटा यानी कि बटन जैसा हो जाता है। वे दिखने में अनाकर्षक लगते हैं व खाने में भी बेस्वाद होते हैं। इनका बाजार में बहुत कम भाव मिलता है।
बटनी फल बनने के कारण:-
बटनी फल बनने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:-
- पौधों की अत्यधिक वृद्धि।
- मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश की अधिकता।
- मृदा में बोरोन की कमी।
- सामान्य परागण न हो पाना।
बटनी फलों का उत्पादन निम्नलिखित विधियों से कम किया जा सकता है :
- नत्रजनधारी उर्वरकों का प्रयोग आवश्यकता से अधिक न करें।
- बैग में प्रागण हेतु मधुमक्खियों के छत्ते रखे।
- पुष्पन के दौरान बोरेक्स (2%) का एक छिड़काव करें।
- जिब्रेलिक अम्ल (75 पीपीएम) का फरवरी में एक छिड़काव करे।
प्रस्तुति:-
डॉ. राम रोशन शर्मा,
वरिष्ठ वैज्ञानिक (फल विज्ञानं),
कटाई उपरांत प्रोद्द्योगिकी संभाग,
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान,
नई दिल्ली
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